श्रद्धा के फूल
लेखनी!कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
जो धरा की गोद में ,सब कुछ लुटाकर सो गए हैं
बीज आज़ादी का जो , अपने लहू से बो गए हैं
जिनके कारण गंगा के , साहिल सुनाते गीत हैं
और बरफ की वादियों में , गूँजता संगीत है
वंदना में झुक के तुम भी, शीश को अपने नवाँ दो
लेखनी! कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
श्रृंगार प्राची का जो कर गए, माँग के सिंदूर से
टुकड़ों को चूड़ी के, बिखरा जो गए हैं फूल-से
लक्ष्मण-रेखा बनाकर , आलते की धार से
कर गए जयघोष , सरहद पर प्रिया के प्यार से
आँसुओं का तुम भी उनके, मोल थोड़ा तो चुका दो
लेखनी!कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
रोक ना पाई जिन्हें , लोरी की सरगम राह में
चूमना चाहा था जिनको, लेके अपनी बाँहों में
जो फकत चरणों में अपना, सर नवाँ कर चल दिए
जिनके जाने से न फिर , जल पाए आँगन में दीये
द्वार पर तुम एक दीपक, आज तो उनके जला दो
लेखनी! कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
कह के जो घर से चले थे, गुड्डा-गुड़िया लाएँगे
साथ में हम डोली और , धानी चुनरिया लाएँगे
चाँद पर सेहरा लगाकर , तारों की बारात को
शांत नैनों से जो तकते, स्वप्न की उस रात को
आज उनके द्वार पर, शहनाई के स्वर तुम सजा दो
लेखनी! कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
गीत गाओगी तो , गीता जैसी पूजी जाओगी
ग़ज़ल रचकर वीरों की कुरआन में, ढल जाओगी
परश पाकर दोहे , नानक की ज़ुबाँ बन जाएँगे
कर्ज़ जितने हैं , शहीदों के सभी चुक जाएँगे
जन्म को तुम चाहो तो अब, सार्थक अपने बना लो
लेखनी! कुछ फूल श्रद्धा के भी तुम उन पर चढ़ा दो।
— शरद सुनेरी