बोधकथा

चतुर जवाईराजा

एक दिन की बात है कि राजा हर्षवर्धन अपनी राज्य सभा में बैठे थे। चर्चा-वार्ता और आनन्द-प्रमोद का दौर चल रहा था। उसी समय एक नवयुवक ने आकर राजा को प्रणाम किया और सभा की अंतिम पंक्ति में जाकर बैठ गया। युवक की सादगी, विनम्रता और चेहरे की कांति से राजा की नज़र उस पर जम गयी थी। कविगण और विद्वान् हंसी-मजाक भरी चर्चा अर्थात् संवाद कर रहे थे, परन्तु वह नवयुवक चुपचाप बैठा उन सबकी चर्चाओं को सुन रहा था, परन्तु बोल कुछ भी नहीं रहा था। काफी देर तक उसे शान्त बैठा देखकर राजा से रहा नहीं गया और उसने आगन्तुक युवक से कहा कि- ‘‘नवयुवक! तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हमारी सभा मंें विद्वान् कवियों की कमी है?
नवयुवक ने अपने स्थान से खड़े होकर बड़ी ही विनम्रता से राजा को प्रणाम करते हुए कहा कि- ‘‘महाराज! अविनय क्षमा करें, पर मन ही मन में मैं आपके कवियों-विद्वानों की कसौटी कर रहा था कि ये लोग मेरी विद्व्ता के अनुरूप है या नहीं। जो प्रश्न इनसे पूछू उसका सही-सही उत्तर यदि आपकी सभा दे दे तो मैं आपके कवियों एवं विद्व्ानों की चर्चा में अवश्य भाग लूँगा।’’ उसके ऐसा कहने पर पूरी की पूरी सभा अवाक् रह गई। राजा का चतुर एवं बुद्धिमान गिना जाने वाला महामंत्री भी उसकी बात से संकोच में पड़ गया एवं मन ही मन में सोचने लगा कि आजकल का यह छोकरा हमारी बुद्धि की कसौटी करने आया है। इसके प्रश्न का सही उत्तर मैं या मेरे दरबारी कवि दे पायेगें तभी यह चर्चा में भाग लेगा।
महाराजा उसकी बातों से प्रभावित होकर मंद-मंद मुस्करा रहे थे। क्योंकि शुरुआत में ही उस युवक ने माफ़ी मांग ली थी। इसलिये महाराज ने उससे कहा- ‘‘नवयुवक! तुम निःसंकोच तुम्हारा प्रश्न पूछो। हमारे विद्वान् और कवि अवश्य उसका सही उत्तर देंगे और इनसे भी नहीं होगा तो हमारे महामंत्री जी तो है ही, जो बहुत ही चतुर एवं अनुभवी है। वो तो अवश्य तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे ही देंगे।’’ राजा की बात सुनकर महामंत्री भी अन्दर तक सहम गया और मन-ही-मन में सोचने लगा कि महाराजा ने सारा भार मेरे ऊपर ही डाल दिया। अपने डर को छुपाते हुए उस युवक से बोला- ‘‘नवयुवक! तुम प्रश्न पूछो, हमारे विद्वान् कवि उसका उत्तर दे ही देंगे, पीछे मैं तो हूँ ही।’’
नवयुवक ने महाराजा को पुनः नमन करके महामंत्री से कहा- ‘‘महामंत्रीजी! आप ही फरमाइये कि, बुद्धि खाती क्या है? बुद्धि पीती क्या है? बुद्धि रहती कहाँ है? और बुद्धि देती क्या है?’’ नवयुवक के इस प्रश्न से सभी सभासद सोच में पड़ गये। युवक ने वास्तव में बहुत ही कठिन एवं बुद्धिशाली प्रश्न किया था? काफी समय तक दिमागी कसरत करने के बाद कवियों ने अपनी अशक्ति दर्शाते हुए महामंत्रीजी पर ही प्रश्न का उत्तर देने की जिम्मेदारी डाल दी। महामंत्रीजी स्वयं असमंजस में थे, किन्तु वो कुशल-चतुर व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने महाराज को नमन कर कहा- ‘‘महाराज! युवक द्वारा किया गया प्रश्न थोड़ा कठिन है। इसलिए इसका तत्काल उत्तर नहीं दिया जा सकता। विनती है कि इस प्रश्न का सही-सही उत्तर देने के लिए आप मुझे तीन दिन की मोहलत दीजिए।’’ तीन दिन के बाद महामंत्रीजी उत्तर देंगे, ऐसा कहकर राजा ने सभा बर्खास्त कर दी।
महामंत्रीजी को तो इस प्रश्न का उत्तर पाना सिर का दुःखड़ा बन गया। उनका खाना पीना भी दुःखदायी हो गया। पूरे दिन उस प्रश्न का उत्तर ढूंढने में लगे रहे। महामंत्रीजी को दुःखी देखकर उनकी पुत्रवधू ने उनसे उनके दुःखी होने का कारण पूछा, तो महामंत्री ने कारण बताया। यह सुनते ही पुत्रवधू हँसते हुए उससे बोली- ‘‘आप इतने में ही घबरा गये? पुराने अनुभवी महाजन हो इतनी तो खबर आपको होनी चाहिए कि जिसने प्रश्न पूछा है, उसका उत्तर भी उसी के पास होगा। इसलिए शीघ्र उस युवक को पकड़ो, उसको ही पूछो, उत्तर मिल ही जाएगा।’’ महामंत्री ने अपने कान पकड़ते हुए बोला- ‘‘अरे! यह बात तो मेरे ध्यान में ही नहीं आई। मैं अभी उस युवक का घर ढूंढकर उत्तर प्राप्त करूँगा और फिर कल सभा में कहूँगा तब ही मेरी इज्जत बचेगी।’’
रात्रि पूर्व ही नवयुवक के घर का पता लगा लिया गया एवं महामंत्री जी उसके घर पहुँचे। उसके घर को देखते ही वे समझ गये यह घर तो मेरे से पूर्व वाले महामंत्री का ही है एवं यह युवक भी उन्हीं का पुत्र है। एक ही बिरादरी के होने से वह मेरी मदद अवश्य करेगा। ऐसा विचार करते हुए उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी। युवक को पहले से ही पता था कि थक हारकर महामंत्रीजी मेरे पास ही आने वाले हैं, इसलिए उसने अपनी माता को कह रखा था- ‘‘माँ! आज आपको मैं मेरी जिन्दगी की पहली कमाई दूँगा।’’ महामंत्रीजी उसके घर आये, पुराना परिचय निकाला, फिर उन्हीं प्रश्नों का उत्तर नवयुवक से ही मांगा। इस पर युवक बड़ी ही दृढ़ता से कहा- ‘‘महामंत्रीजी! भगवान भी प्रसाद के बिना प्रसन्न नहीं होते हैं। फिर मैं तो मनुष्य हूँ, मेरे भी पेट है। इसलिए आप उन प्रश्नों का यदि कुछ मूल्य दो तो आपको मैं उत्तर बता सकता हूँ। महामंत्रीजी तो उसकी ऐसी स्पष्ट व्यापारी भाषा सुनकर दंग रह गया, पर यदि उसे उन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते है तो वे राजा की नजर से उतर जायेंगे, यह सोचकर वह बोला- ‘‘मुझे मंजूर है, तुम जो कहोगे मैं वो मूल्य दे दूँगा, उत्तर तो बताओ।’’
नवयुवक ने आगे कहा- -‘‘देखियें, मैंने चार प्रश्न पूछे थे, प्रथम प्रश्न के उत्तर की कीमत पच्चीस हजार, दूसरे की पचास हजार, तीसरे की कीमत पिच्चतर हजार रुपये और चौथे प्रश्न के उत्तर का मूल्य बाद में बताऊँगा, यदि आपको स्वीकार हो तो कहिये।’’ महामंत्री ने टोटल लगाई तो कुल डेढ़ लाख रुपये हुए। महामंत्री ने आगे उससे कहा कि- ‘‘अरे, चौथे प्रश्न का उत्तर बाद में क्यों?’’ नवयुवक मर्म भरी मुस्कान के साथ बोला- ‘‘कल आप पहले तीन प्रश्नों के उत्तर देना फिर परसों चौथे प्रश्न पर विचार करेंगे।’’
हाँ कहने के सिवाय महामंत्री के पास कोई विकल्प नहीं था। युवक ने डेढ़ लाख रुपये लेकर तीनों प्रश्नों के उत्तर बतायें, जिसमें पहला प्रश्न था-‘‘बुद्धि क्या खाती है?’’ उत्तर- ‘‘बुद्धि गम खाती है।’’ दूसरा प्रश्न- ‘‘बुद्धि पीती क्या है?’’ उत्तर- ‘‘बुद्धि सामने वाले व्यक्ति की बात का मर्म-अर्थ पीती है।’’ तीसरा प्रश्न- ‘‘बुद्धि कहाँ रहती है?’’ उत्तर- ‘‘बुद्धि पाँच मानवों में जो पंच हो वहाँ रहती है।’’ महामंत्रीजी ने दूसरे दिन भरी सभा में उन प्रश्नों के उत्तर बताये तो जिन्हें सुनकर राजा एवं राजदरबारी सभी खुश हो गये।
उसी रात महामंत्रीजी फिर युवक के घर पहुँचे और शेष चौथे प्रश्न के उत्तर का मूल्य पूछा तो युवक ने दूसरी तरफ मुँह करके कहा उनसे बोला- ‘‘महामंत्रीजी! मैंने सुना है कि आपके घर में संस्कारी और कुलीन कन्या है, उसके लिए आप योग्य वर की तलाश कर रहे हो।’’ इतना सुनते ही महामंत्रीजी के समझदारी के सारे दरवाजे खुल गए और वो बोल उठाः- ‘‘मैं समझ गया युवक! कल सुबह मैं अपनी जाति के पाँच गणमान्य व्यक्तियों को लेकर आता हूँ और तुम्हारे साथ मेरी पुत्री की सगाई पक्की करता हूँ। ऐसा चतुर एवं विनयी जवाई मुझे ओर कहाँ मिलेगा?’’ उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- ‘‘जवाईराजा, अब तो चौथे प्रश्न का उत्तर दे दो कि- ‘‘बुद्धि क्या देती है?’’

अब नवयुवक खुले दिल से हँसा, साथ-ही-साथ उसकी माताजी भी हंस पड़ी। महामंत्री असमंजस में सोचने लगा कि ये दोनों क्यों हँस रहे हैं? उसको हँसी का कारण समझाते हुए युवक ने कहा- ‘‘आप अभी भी नहीं समझे क्या? बुद्धि लक्ष्मी देती है, पद दिलाती है। आप मुझे जवाई बना रहे हो तो फिर राज दरबार में अच्छी नौकरी तो दिलाओगे ही ना? और हाँ! आपकी पुत्री इस साधारण से घर में रहेगी, यह आपको कब स्वीकार होगा? अर्थात् एक हवेली भी तो पुत्री को देने वाले हो?’’ उसकी बात सुनकर महामंत्री भी अब खिल-खिला कर हँसने लगा और सोचने लगा कि कितना अच्छा, चतुर एवं समझदार है मेरा जवाई। दूसरे दिन राज सभा में महामंत्री ने बुद्धि क्या देती है? इसके प्रत्युत्तर में कहा कि बुद्धि पैसा देती है, पद दिलाती है, प्रतिष्ठा बढ़ाती है। उसके उत्तर को सुनकर राज-दरबारी प्रसन्न एवं संतुष्ट हुए। महामंत्री ने महाराजा को हाथ जोड़कर कहा कि- ‘‘मैं अब वृद्ध हो गया हूँ, इसलिए मैं अपना महामंत्री पद इस युवक को प्रदान करने की विनती करता हूँ। जो थोड़े ही समय में मेरा जवाई भी बनने वाला है।’’ पूरी राजसभा सहित राजा स्वयं भी युवक के दूरदर्शी भरे प्रश्नों से खुश हो गया। महामंत्री ने युवक को अपना जवाई बनाया और एक सुन्दर हवेली रहने के लिए भंेट की। इस तरह चतुराई एवं बुद्धि के बल से एक साधारण युवक मकान से महल में पहुँच गया।
— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

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