कहानी

उड़न परी

       सब बच्चों को उछलते _कूदते देखकर संगीता का मन भी खेलने को आतुर हो उठा। उसने बबलू को आवाज देकर कहा,”ए बबलू ,क्या तुम मुझे भी अपने खेल में शामिल करोगे?”      

     यह सुनकर सारे बच्चे ताली बजा -बजाकर हंसने लगे।सब बच्चे उसे लंगड़ी _लूली कहकर चिढ़ाने लगे।

     तभी अचानक गेम्स टीचर वहां आ गए।उनको देखकर सारे बच्चे चुप हो गए पर संगीता का रोना जारी था।टीचर ने बच्चों से कहा, “प्यारे बच्चों, हमें किसी भी मनुष्य का मजाक उड़ाने का हक नहीं हैं। संगीता जन्म से ऐसी है तो वह क्या कर सकती हैं, इसमें उसका क्या दोष हैं।”

      उन्होंने संगीता को समझाया_”बेटा किसी की बातों का हमें बुरा नहीं मानना चाहिए।बातें ही तो है हमारे शरीर से थोड़ी न चिपक जायेंगीं।” यह कहते हुए उन्हें संगीता की हालत पर दुःख हुआ,पर वो कर भी क्या सकते थे।

       दस वर्षीया संगीता चौथी कक्षा की छात्रा है।वाकई उसकी जिंदगी दुःखों से भरी है।उसने जब से अपने को जाना समझा है तब से अपने को निरीह और दिव्यांग पाया है।जन्म से ही वह विकृत पैदा हुई थी।उसके एक हाथ और पैर टेढ़े- मेढ़े और मुड़े- तुड़े थे।

     उसके जन्म के कुछ महीनों के बाद ही उसके पिता का एक सड़क दुर्घटना में दुःखद निधन हो गया था।मां घरेलू महिला थी।ज्यादा पढ़ी -लिखी नही थी। उनके घर की स्थिति बड़ी दयनीय थी। जैसे -तैसे उसकी मां दो -चार घरों में झाड़ू – पोंछा करके उसे पाल रही थी। दुःखयारी मां ने अपनी बेटी को कर्ज लेकर बड़े -बड़े अस्पतालों में दिखाया पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। हां पहले संगीता घिसट -घिसट कर चलती थी पर अब ईलाज चलने पर वह एक पैर पर खड़ी होने लगी और बैसाखी के सहारे चलने लगी है।मां के लिए इतना ही काफी था।

       संगीता पढ़ने में कुशाग्र तो थी पर उसका मन पढ़ाई से ज्यादा खेलने में लगता पर उसकी यह विवशता थी कि वह दौड़ भाग या उछलकूद नहीं कर पाती थी।वह जब भी सारे बच्चों को दौड़ते -भागते देखती तो उसका बाल मन रो उठता। खेलों में उसे क्रिकेट, वॉलीबाल और दौड़ना बेहद पसंद था।पी.टी.उषा को उड़नपरी कहते हैं।यह सुनकर उसका जी करता कि काश!उसके भी हाथ -पैर सही सलामत होते तो वह भी जरूर पी.टी.उषा  की तरह उड़नपरी बनकर धरती से आकाश तक उड़ान भरती।पर यह तो उसकी कोरी – कल्पना थी।

       आज वह बैसाखी के सहारे खेल के मैदान पर बड़ी हिम्मत करके आई थी।स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी।खेल का मैदान एकदम सूना था।वह अपने अंदर की पूरी हिम्मत जुटाकर एक पैर से दौड़ने की कोशिश करने लगी पर यह क्या वह तो मुंह के बल गिर पड़ी।अब स्थिति ऐसी थी कि वहां सूने मैदान में उसे उठाने वाला भी कोई नहीं था।उसने उठने का बहुत प्रयास किया पर नाकाम रही।

अब तो मैदान में अंधेरा घिरने को आ गया था।शाम के सात बज रहे थे।संगीता उठने के प्रयास में और घायल होते जा रही थी।इधर मां को भी अपनी अपाहिज बेटी की चिंता सताने लगी।वे ढूंढती हुई खेल के मैदान पर पहुंचकर आवाज लगाने लगी।तभी उसे अपनी मां की आवाज सुनाई पड़ी।उसने अपने मां को जोर से पुकारा,मां -S-S ओ मां मैं यहां गिरकर पड़ी हूं।”

        मां ने संगीता की  आवाज सुनी तो दौड़ पड़ी।संगीता की दशा देखकर मां को बहुत दुःख हुआ।वह रो पड़ी।

     मां ने रोते – रोते संगीता से पूछा -“बेटा ,तुम तो ऐसे कभी नहीं गिरती ?तुम तो बैसाखी के सहारे चल लेती हो फिर आज कैसी गिर पड़ी ?”

        संगीता ने सुबकते हुए कहा,”मां टीचर बताती हैं कि पी.टी.उषा उड़नपरी हैं।वे बहुत तेज दौड़ती हैं।मुझे भी दौड़ना है बहुत तेज ।

मां मैं भी उड़नपरी बनना चाहती हूं।बस मैंने दौड़ने की कोशिश की और इसी कोशिश में गिर पड़ी।मां -भगवान ने मुझे ऐसा क्यों बनाया है?” यह कहते हुए संगीता जोर – जोर से रोने लगी।

     मां ने बेटी की यह बात सुनकर उसे हृदय से लगा लिया और रो पड़ी।मां ने कहा -“काश ! मैं यह तेरा सपना पूरा कर पाती।ईश्वर ने तेरे साथ नाइंसाफी की है।तेरा एक हाथ- पैर विकृत कर तुझे दिव्यांग बना दिया पर क्या हुआ ?बेटा अगर इंसान ठान ले तो हर काम कर सकता है।तुझमें अगर हिम्मत ,लगन है तो एक दिन तू भी जरूर दौड़ेगी।”

     मां ने यह कह तो दिया पर संगीता को बहलाने के लिए क्योंकि वह जानती थी कि बैसाखी के सहारे कोई भी दौड़कर उड़नपरी का खिताब हासिल नहीं कर सकता।

इधर संगीता ने मां की यह बात मंत्र की तरह सीख लिया।वह दिन – रात मां की इस बात को मंत्र की तरह जपने लगी।उसने मन ही मन ठान लिया कि वह दौड़कर दुनिया को जरूर दिखायेगी।

            अब वह रोज स्कूल की छुट्टी के बाद मैदान पर बैसाखी के सहारे एक पैर से दौड़ने की कोशिश करने लगी।गिरती पड़ती वह घायल होती पर उसने हिम्मत नही हारी।अब तो स्कूल के बच्चों को भी पता चल गया था कि संगीता दौड़ने  की प्रैक्टिस कर रही है।सब हंसते ।उसका मजाक बनाते ।परंतु संगीता अपने लक्ष्य पर अडिग रही।

      वह दिन – रात कल्पना करती कि वह एक ही पैर से दौड़ रही है और वह बबलू से आगे निकल गई है।दौड़ में आगे निकलना उसके जीवन का एकमात्र सपना था।

      आज स्कूल की प्रधानपाठिका ने उसे अपने कक्ष में बुलाया था।वह डरती – झिझकती हुई वहा पहुंची।प्रधानपाठिका ने कहा, “सुनो संगीता हमारे जिले में जिला स्तरीय दिव्यांग बच्चों की खेलकूद प्रतिस्पर्धा हो रहीं है।क्या तुम इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहोगी? अगर हां तो तुम अपने क्लास टीचर के पास अपना नाम दर्ज करा लो।” संगीता ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

“अच्छा ये बताओ ?तुम कौन से खेल में भाग लेना चाहोगी शतरंज,लूडो प्रतियोगिता या ?”

प्रधानपाठिका की बात को बीच में ही काटते हुए संगीता ने कहा ,”नहीं नहीं मैम .मुझे ऐसे खेलों में बिल्कुल रुचि नहीं है ।मैं तो क्रिकेट, बॉलीबाल तथा दौड़ में भाग लेना चाहती हूं।”

संगीता की यह बात सुनकर प्रधानपाठिका उसे आश्चर्य से देखने लगीं।तभी पास बैठी खेल टीचर ने कहा-“जी मैम, हमारी संगीता ने चोरी -छिपे दौड़ने का बढ़िया अभ्यास कर लिया है। दौड़ना उसका सपना है। वह दौड़ में जरूर हिस्सा लेगी।”

      “पर दूसरे स्कूल से -अंधे या गूंगे-बहरे जैसे दिव्यांग बच्चे दौड़ में हिस्सा लेंगे। हमारे स्कूल में केवल संगीता ही दिव्यांग बालिका है तो इसका हारना तय है। भला कोई एक पैर से कैसे दौड़ सकता है?”प्रधानपाठिका   ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा।

      खेल टीचर ने कहा “-मैम संगीता ने अभ्यास को ही गुरु मान लिया है।कहते हैं न करत-करत अभ्यास  के जड़मति होता सुजान। यह सुनकर संगीता मुस्कुरा दी।                                                                 आज दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन था।उस दौड़ प्रतियोगिता को देखने बहुत भीड़ थी।कारण था कि प्रतियोगिता दिव्यांगों की थी और एक बालिका एक पैर से दौड़ने वाली थी।यह कौतूहल का विषय था।

दौड़ शुरू हुई।सब लोगों ने दांतों तले ऊंगली दबा कर देखा कि संगीता सचमुच केवल एक पैर से बैसाखी के सहारे अपनी पूरी ताकत से दौड़ रही थी।सब ताली बजा रहे थे।

       पता नहीं उसमें हिम्मत और ताकत कहां से आई कि संगीता एक पैर से ही तेजी से दौड़ रही थी और अब प्रथम स्थान पर खड़ी थी।

      आज इस छोटी सी बालिका की साधना पूरी हो गई। वह जीवन के इस दौड़ में सफल हुई।                       उसकी खुशी का ठिकाना न था।

सभी अखबार में केवल संगीता के चर्चे थे। उसकी फोटो और समाचार हर अखबार में प्रकाशित किये गये थे।

      टीवी में भी उसका इंटरव्यू लिया जा रहा था। संगीता की मां अपनी बेटी की इस सफलता पर खुशी से झूम रही थी। पूछा जा रहा था -“एक पैर से दौड़ना कैसा लगता है?”

       वह कह रही थी -” अब अच्छा लगता है। पहले दर्द और परेशानी का सामना करना पड़ा पर मुझे बहुत खुशी है कि मैंने अपने परिश्रम और लगन से आखिर दौड़ना सीख लिया।”

इंटरव्यू में पूछा जा रहा -” बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो?”

संगीता कह रहीं थी – “उड़नपरी”

         आज सचमुच संगीता उड़नपरी बन गई थी।

— डॉ. शैल चन्द्रा

*डॉ. शैल चन्द्रा

सम्प्रति प्राचार्य, शासकीय उच्च माध्यमिक शाला, टांगापानी, तहसील-नगरी, छत्तीसगढ़ रावण भाठा, नगरी जिला- धमतरी छत्तीसगढ़ मो नम्बर-9977834645 email- [email protected]