दोहे
घर जमीन बिक जात है, और हुस्न बाजार,
मजबूरी पीछे छिपी, क्या जाने संसार ।
बिके जवानी बचपना, इज्जत की दीवार,
भला कौन है पौंछता, बहे अश्रु लाचार।
विधायक जी मंत्री सभी, और बिके सरकार,
जाकी जैसी हैसियत , दिखलाते चमत्कार।
बडे बिके छोटे बिके , बिकते रिश्तेदार ,
एक दूजे के द्वेष में , रहा न मन उजियार ।
पशु-पक्षी पानी पवन , हो जाते लाचार,
बिकते मजबूरी सखे , भले होय हुसियार ।
— शिवनन्दन सिंह