बढ़ती ठंड
कैसा ये मौसम है आया, कभी धूप सँग होती छाँव।
बैठे बिस्तर में है सारे, नहीं धरा पर रखते पाँव।।
ठिठुर रहे हैं लोग यहाँ पर, किटकिट करते सब के दाँत।
इक दूजे को करे इशारे, नहीं निकलती मुँह से बात।।
तेज सूर्य की किरणें आतीं, मिलती है ऊर्जा भरपूर।।
चौराहे पर बैठे–बैठे, ठंडी को करते हैं दूर।।
स्वेटर मफलर तन को भाये, स्पर्श नहीं करते हैं नीर।
छोटे बच्चे रोते रहते, क्या ठंडी में होती पीर।।
बादल में छुप जाता सूरज, और पवन की बहती धार।
दुबके मानव घर के अंदर, काम काज से माने हार।।
बहुत बढ़ी है ठंड धरा पर, थोड़ा कम कर दो भगवान।
देह बर्फ सी जमती जाती, कहीं निकल ना जाये प्राण।।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”