स्वास्थ्य

स्वस्थ रहना स्वयं पर निर्भर

मानव शरीर दुनिया की श्रेष्ठतम मशीन
मानव शरीर की संरचना विश्व का एक अद्भुत आश्चर्य है। मस्तिष्क जैसा सुपर कम्प्यूटर, फेंफड़े एवं गुर्दे जैसा रक्त शुद्धिकरण यंत्र, हृदय जैसा निरन्तर गतिशील रक्त का पम्प, आमाशय, तिल्ली, लीवर जैसा रासायनिक कारखाना, आंख के समान कैमरा, कान के समान श्रवण यंत्र, जीभ के समान वाणी एवं स्वाद यंत्र, लिंफ प्रणाली जैसी नगर निगम के समान सफाई व्यवस्था, नाड़ी तंत्र के समान मीलों लम्बी संचार व्यवस्था, अन्तःश्रावी ग्रन्थियों के समान सन्तुलित, नियंत्रित, संयमित, न्यायिक, प्रशासनिक व्यवस्था, अवांछित तत्वों के विसर्जन की व्यवस्था, प्रकाश से भी तेज गति वाला मन इत्यादि अन्यत्र निर्मित उपकरणों अथवा अन्य चेतनाशील प्राणियों में एक साथ मिलना असंभव होता है। उससे भी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि सारे अंग, उपांग, मन और इन्द्रियों के बीच आपसी तालमेल। यदि कोई तीक्ष्ण पिन, सुई अथवा काँच आदि शरीर के किसी भाग में चुभ जाए तो सारे शरीर में कंपकंपी हो जाती है। आँखों से आँसू और मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ एवं मन क्षण भर के लिए अपना कार्य रोक शरीर के उस स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत अच्छा लगता है और न ही मन-भावन दृश्य। न हँसी मजाक में मजा आता है और न खाना-पीना भी अच्छा लगता है। मन जो दुनियाँ भर में भटकता रहता है, उस स्थान पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देता है। हमारा सारा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत का अनुभव करते हैं। जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय, समर्पण, अनुशासन और तालमेल हो अर्थात् शरीर के किसी एक भाग में दर्द, पीड़ा और कष्ट होने की स्थिति में सारा शरीर प्रभावित हो तो क्या ऐसे स्वचलित, स्वनियन्त्रित, स्वानुशासित शरीर में असाध्य एवं संक्रामक रोग पैदा हो सकते हैं? चिन्तन का प्रश्न है।
स्वास्थ्य हेतु सम्यक् चिन्तन आवश्यक
मानव जीवन अनमोल है, अतः उसका दुरुपयोग न करें। वर्तमान की उपेक्षा भविष्य में परेशानी का कारण बन सकती है। वास्तव में हमारे अज्ञान, अविवेक, असंयमित, अनियंत्रित, अप्राकृतिक जीवनचर्या के कारण जब शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता से अधिक शरीर में अनुपयोगी, विजातीय तत्त्व और विकार पैदा होते हैं तो शारीरिक क्रियाएँ पूर्ण क्षमता से नहीं हो पाती, जिससे धीरे-धीरे रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अनेक रोगों की उत्पत्ति के पश्चात् ही कोई रोग हमें परेशान करने की स्थिति में आता है। उसके लक्षण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होने लगते हैं। शरीर में अनेक रोग होते हुए भी किसी एक रोग की प्रमुखता हो सकती है। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ, उसके आधार पर रोग का नामकरण, निदान और उपचार करती है। प्रायः रोग के अप्रत्यक्ष और सहयोगी कारणों की उपेक्षा के कारण उपचार आंशिक एवं अधूरा ही होता है। सही निदान के अभाव में उपचार हेतु किया गया प्रयास अधूरा ही होता है। जो कभी-कभी भविष्य में असाध्य रोगों के रूप में प्रकट होकर अधिक कष्ट, दुःख और परेशानी का कारण बन सकते हैं। कहीं हमारा आचरण अज्ञानवश अपने आपको गरीब, दरिद्र मान अरबपति बाप के भिखारी बेटे की तरह दर-दर भीख मांगने जैसा तो नहीं है? अतः ठीक उसी प्रकार जिस शरीर में इतने अमूल्य उपकरण हों, उस शरीर में अपने आपको स्वस्थ रखने की व्यवस्था न हो, क्या यह संभव है?
मानव शरीर अपने आपमें परिपूर्ण
शरीर अपने लिये आवश्यक रक्त, मांस, मज्जा, हड्डियां, वीर्य आदि अवयवों का निर्माण चेतना के सहयोग से स्वयं करता है, जिसे अन्यत्र प्रयोगशालाओं में बनाना अभी तक संभव नहीं हुआ है। हमारे शरीर में पसीने द्वारा त्वचा के छिद्रों से पानी तो आसानी से बाहर आ सकता है, परन्तु पानी में त्वचा को रखने से, उन छिद्रों से पानी भीतर नहीं जा सकता। प्रत्येक शरीर का कुछ न कुछ वजन होता है, परन्तु चलते-फिरते किसी को अपना वजन अनुभव नहीं होता है। हमारे शरीर का तापक्रम साधारणताया 98.4 डिग्री फारेहनाइट होता है, भले ही बाहर कितनी ही सर्दी अथवा गर्मी क्यों न हो? चाहे, बर्फीले दक्षिणी अथवा उत्तरी ध्रुव पर जावें अथवा गर्मी में सहारा मरुस्थल जैसे गर्म स्थानों पर, शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेहनाइट ही रहता है। हम देखते हैं जब कभी आंधी या तेज हवा चलती है, तब हल्के पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर चले जाते हैं। परन्तु हलन-चलन, उठने-बैठने एवं दौड़ने के बावजूद शरीर की पतली से पतली कोई भी नाड़ी अपना स्थान नहीं छोड़ती। यदि हम शीर्षासन करें तो हृदय अथवा कोई भी अंग अपना स्थान नहीं छोड़ता। शरीर के सभी अंग, उपांग, नाड़ियां, हड्डियां, हलन-चलन के बावजूद कैसे अपने स्थान पर स्थिर रहते हैं? वास्तव में क्या यह आश्चर्य नहीं है?
शरीर में स्वयं को स्वस्थ रखने की क्षमता होती है
हम देखते हैं कि जब किसी व्यक्ति की हड्डी अपना स्थान छोड़ देती है तो डॉक्टर उसको ठीक स्थान पर पुनः स्थित कर छोड़ देता है। जोड़ने का कार्य तो शरीर स्वयं ही करता है। शरीर अपने लिए आवश्यक रक्त का निर्माण स्वयं करता है। मां के गर्भ में जब बच्चे का विकास होता है तो पूरे शरीर का निर्माण स्वयं शरीर के द्वारा ही होता है। ये सभी तथ्य हमें सोचने तथा चिंतन करने के लिए प्रेरित करते हैं कि शरीर में स्वयं को स्वस्थ रखने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। क्या मानव कभी चिंतन करता है कि मनुष्य के अलावा अन्य चेतनाशील प्राणी अपने आपको कैसे स्वस्थ रखते हैं?
प्रत्येक अच्छे स्वचलित यंत्र में खतरा उपस्थित होने पर स्वतः उसको ठीक करने की व्यवस्था प्रायः होती है। जैसे बिजली के उपकरणों के साथ ओवरलोड, शार्ट सर्किट, अर्थ फाल्ट आदि से सुरक्षा हेतु फ्युज, रिले आदि होते हैं। प्रत्येक वाहन में ब्रेक होता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वाहन की गति को नियंत्रित किया जा सके। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो दुनियां की सर्वश्रेष्ठ स्वचलित, स्वनियंत्रित मशीन होती है, उसमें रोगों से बचने की सुरक्षात्मक व्यवस्था न हो तथा रोग होने की अवस्था में पुनः स्वस्थ बनाने की व्यवस्था न हो, यह कैसे संभव हो सकता है? आवश्यकता है, हमें अपनी क्षमताओं को जानने, और समझने की तथा स्वविवेक, धैर्य, सहनशीलता एवं सद्बुद्धि द्वारा उसका सही उपयोग करने की। हम जानते हैं कि स्वचलित उपकरणों में जितनी ज्यादा अनावश्यक छेड़छाड़ की जाती है उतनी ही उसके खराब होने की संभावनाएँ बढ़ जाती है।
शरीर, मन एवं आत्मा की विकारमुक्त अवस्था ही सम्पूर्ण स्वस्थता का प्रतीक होती है-
जनसाधारण किसी बात को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक उसे आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित और मान्य नहीं कर दिया जाता, परन्तु चिकित्सा के क्षेत्र में आधुनिक चिकित्सकों की सोच आज भी प्रायः शरीर तक ही सीमित होती है। मन एवं आत्मा के विकारों को दूर कर मानव को पूर्ण स्वस्थ बनाना उनके सामर्थ्य से परे है। फलतः आधुनिक चिकित्सा में प्राथमिकता रोगी के रोग से राहत की होती है और उसके लिए हिंसा, अकरणीय कर्म, अन्याय, अवर्जित, अभक्ष्य का विवेक उपेक्षित एवं गौण होता है। अतः ऐसा आचरण कभी-कभी प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों के विपरीत होने के कारण, उपचार अस्थायी, दुष्प्रभावों की सम्भावनाओं वाला भी हो सकता है। वास्तव में जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ, शक्तिशाली, ताकतवर, रोगमुक्त बनाने के साथ-साथ मन को संयमित, नियन्त्रित, अनुशासित और आत्मा को निर्विकारी, पवित्र एवं शुद्ध बनाती है- वे ही चिकित्सा पद्धतियाँ स्थायी प्रभावशाली एवं सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति होेने का दावा कर सकती हैं।
स्वस्थ रहने हेतु स्वास्थ्य विज्ञान की विस्तृत जानकारी आवश्यक नहींः-
हम साल के 365 दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः 8 से 10 बार से अधिक नहीं बुलाते। 355 दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? कितना वोल्टेज, करेन्ट और फ्रिक्वेन्सी है? मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। विभिन्न स्वावलम्बी अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं अपने आपको स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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