सामाजिक

जिंदगी: एक सफ़र अलबेला

यूं तो हम सभी मानते कि जिंदगी भी एक सफ़र, एक यात्रा हैं। इस जीवन यात्रा में किस किस को कहाँ कहाँ तक जाना है, यह जानना पूर्णतया अनिश्चित ही नहीं लगभग असंभव भी है।

      क्योंकि जिंदगी के सफर के रास्ते सरल भी है तो बहुत टेढ़े- मेढ़े और चुनौतीपूर्ण भी होते हैं। जिसका पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है, बस बेहतर की उम्मीद में हम अपनी यात्रा जारी रखते हुए आगे बढ़ने की कोशिशों में लगे रहते हैं। जिसमें सफलता, असफलता के साथ सहूलियतें और कठिनाइयों का दौर भी चलता ही रहता है।

      जिंदगी के इस सफर में बहुत से सहयात्री हमसे जुड़ते हैं, कुछ रिश्तों के रूप में, कुछ सहयोगी, कुछ व्यवधान उत्पन्न करने के लिए, कुछ हमारे मार्ग को सहज बनाने के लिए,कुछ हमारी कठिनाई से बचाने में सहयोगी के रूप में मिलते हैं, तो कुछ ऐसे भी होते हैं जो समयानुसार अपने स्वार्थ, कर्तव्य की भावना कुछ से सहयात्री के रूप में जुड़ते और बिछुड़ते जाते है,तो कुछ से अप्रत्याशित रूप से कुछ दूर तक, कुछ बहुत दूर तक तो कुछ मंजिल तक साथ देते हैं, मगर जिंदगी की यात्रा अनवरत चलती ही रहती है,  कभी किसी की प्रतीक्षा में या साथ के लिए रुकती नहीं है। इस जिंदगी के सफर में बहुत से खट्टे मीठे, हंसाने, सुलाने वाले अनुभव से गुजरते हुए हम आगे बढ़ते ही रहते हैं,या यूं कहें सफर जारी रखने को विवश होते हैं। क्योंकि जिन्दगी यह एक पहेली है, एक भटकाव , भ्रम, तृष्णा, सीख, शिक्षा के साथ अनुभवों का दौर समय समय पर आता रहता है, जिसे सुख, दुख, हँसते रोते या मजबूरी में हम स्वीकार करने को विवश होते हुए यात्रा जारी रखते हैं,

       हमारी जिंदगी ईश्वर का उपहार, वरदान सरीखा है है, जिसमें कभी हरियाली, तो कभी पतझड़, कभी सूखा, तो कभी बाढ़, कभी खुशी तो कभी ग़म का दौर चलता ही रहता है। जिंदगी गीत है, संगीत है और क्षणभंगुर भी।जिसको हम अपने अनुभवों और सुविधाओं के हिसाब से स्वतंत्रता से परिभाषित करते हैं। क्योंकि जिंदगी की इस अनवरत जारी यात्रा में हम समय, परिस्थिति के अनुसार इसकी परिभाषा को बदलते भी रहते हैं।जिस पर किसी का कोई दबाव या प्रतिबंध भी नहीं है।

       जिंदगी की यात्रा करने का अपना तरीका है, लेकिन जिंदगी का सफर तभी सुहाना लगता है जब उसका लुत्फ उठाते हुए हंसी खुशी जिया जाए ना कि रोते हुए बोझ समझकर ढोया जाय। कुल जमा आशय यह है कि जिंदगी के सफर को आसान बनाया, न कि कुंठा के साथ आगे बढ़ा जाय। निराशा के साथ जिंदगी का सफर तो जारी रहेगा, पर जिंदगी का आनंद और वास्तविक अनुभव का आत्मज्ञान नहीं हो सकेगा।

       हमारे उपनिषद कहते है-चरैवेति, चरैवेति अर्थात् चलते रहो।जीवन चलने का नाम है है। हर स्थिति,  परिस्थिति में आगे ही बढ़ते जाने का नाम ही तो हमारे जीवन का है।

       जबकि आज के समय में हमारे जीवन का लक्ष्य अर्थ लाभ भर रह गया है मात्र पैसा है। सिर्फ सुखमय जीवन ही उद्देश्य बनता जा रहा है और हम इसी उधेड़बुन और दिन रात मशीन कर रहते हुए ही इस नश्वर संसार से असंतुष्ट ही विदा हो जाते हैं।

      और अंत में जिंदगी को समझने के लिए इतना ही काफी पर्याप्त है जो कि भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में जो कहा है कि मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार करना है। मनुष्य की आत्मा परम सत्य को जानने के बाद जीवन मुक्ति की अधिकारी हो जाती है और मनुष्य इस संसार सागर से पूर्णतया मुक्त होकर पुनः संसार चक्र में नहीं फँसता। यही जिंदगी का संपूर्ण सफर है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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