कविता

सर्द हवाएं

शीत ऋतु अपने चरम पर हैकुहासे का प्रकोप और बढ़ रही गलनऔशूल सी चुभती हवाएं,हिला रही हैं हर किसी को।बूढ़े बच्चे जवान ही नहींपशु पक्षी,कीट पतंगों तक को,न जाति धर्म का भेदसबसे सम व्यवहार।पहाड़ों पर हो रही बर्फबारीसर्द हवाओं का सितम जारी।ठंड के चलते घरों में हैं दुबके लोगसुरक्षित छांव की तलाश मेंजाने कितने गरीब असहाय बेबस लाचार लोग,परिवार का पेट भरने की जद्दोजहद में लगे मजदूरअलाव के छिटपुट होते दर्शनकूड़े करकट जलाकरठंड से बचने की कोशिश में जहां तहां लोग।न दिन का सूकून, न रात को चैनपूस की बेदर्द ठंड भरी रात ही नहींदिन भी झकझोरता है,जीवन से संघर्ष करते निर्धन गरीब लाचार लोगईश्वर के भरोसे खुद को छोड़ कर भीअपने भाग्य को कोसते हैंऔर दिन रात बस यही दुआ करते हैंबस कैसे भी कट जाए ये ठंड  का मौसमऔर सर्द हवाओं के थपेड़ो से मिल जाए मुक्ति।बस ऐसे ही कट जाता है माघ पूस की ठंडऔर तब मिल पाती है समय के साथसर्द हवाओं से आजादी,और मन को तब हो जाता है संतोषहोता है अपना अपना भाग्य।क्योंकि यही तो है जीवन दर्शनऔर सर्द हवाओं का कटु अनुभव,जो हर वर्ष आता और जाता है कुछ इसी तरहकुछ खट्टी कुछ मीठी यादें सौंप ही जाता है हम सबके लिए दे जाता है कुछ संदेश भी।

*सुधीर श्रीवास्तव

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