लघुकथा – मन की आंखें
मैं 16 साल की बाली उम्र में दो विद्यालयों की फाउंडर प्रिंसिपल रही हूं. उसके बाद लगभग 16 सरकारी विद्यालयों में वरिष्ठ हिंदी अध्यापिका रही हूं. सभी सरकारी विद्यालयों में अक्सर दृष्टिबाधित संगीत अध्यापक नियुक्त थे. मैं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की इंचार्ज होती थी, इसलिए संगीत प्रतियोगिताओं के उपलक्ष में संगीत अध्यापकों के अधिक संपर्क में रहती थी. एक दिन बात हो गई दृष्टिबाधित संगीत अध्यापक गिरधरलाल से.
“भगवान ने सबको पांच इंद्रियां दी हैं, पर मुझे चार! नहीं-नहीं मुझे छः इंद्रियां दी हैं. मेरी छठी इंद्री मन बहुत सक्रिय है, तभी आप मुझसे प्रतियोगिता के लिए छात्राओं का चुनाव करवाने आती हैं.” मैं हैरानी से सुनती गई.
“मन मुझे बताता है, कि नजारा कितना सुंदर है! बादलों की गरजन, पायल की छम-छम, पाखियों का कलरव हो, झरनों की कल-कल, मेरे कर्णों को पल-पल तरंगित करती है.” उनका मन तरंगित था.
“बेमानी का आलिंगन हो या ममता भरी छुअन, गर्मी हो या बर्फीली गलन, काँटों भरी चुभन हो या मौसम-देह गरम, हर स्पर्श मेरा तन-मन समझाता है.”
“व्यंजन खट्टा-मीठा हो, स्वाद कसैला या नमकीन हो, कड़वा बोल लोगों का हो या मेरे पालतू श्वान की मधुर कूं-कूं, जान जाता हूं.”
“संगीत की दुनिया तो शायद हमारे लिए ही बनी है! पता नहीं कैसे हम इसमें खो जाते हैं. ब्रेल लिपि हमारे लिखने -पढ़ने का सहारा बनी है, जो ज्ञान के सभी द्वार खोलकर हमारे मन की आंखों को रोशन करती है.”
“दृष्टिबाधितों के भाग्य-विधाता लुइस ब्रेल जन्मजात दृष्टिबाधित नहीं थे. बचपन में ही उनकी एक आंख में चाकू लग जाने के कारण रोशनी चली गई, धीरे-धीरे दूसरी आंख भी दृष्टिबाधिता का शिकार बनी. अपनी पीर को सभी दृष्टिबाधितों की पीर समझकर उन्होंने ब्रेल लिपि का आविष्कार किया, यह मन की आंखों का ही तो प्रताप था.”
अगले कालांश की बेल बज जाने के कारण हमारे वार्तालाप ने यहीं विराम ले लिया.
(4 जनवरी “विश्व ब्रेल दिवस” विशेष)
— लीला तिवानी