गजल
थी खफ़ा जिंदगी ये हकीकत रही l
आरज़ूओं में लिपटी मुहब्बत रही l
दर्द ग़म को भुला बढ़ चले राह पर
ख्वाब ताबीर होने की चाहत रही l
तम की काली घटाओं ने घेरा बहुत
पर चरागों सा जलने की आदत रही l
ख्वाब ऐसे जो अबतक न पूरे हुए
थी अधूरी हमारी इबादत रही l
हम खतावार हैं न गुनहगार हैं l
क्यूँ ज़माने को इतनी शिकायत रही l
चाहतों के महल के झरोखे ‘मृदुल’ ,
झाँकती जिससे सारी शराफत रही l
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल ‘