व्यंग्य – गधे पँजीरी खाँय
जब सब कुछ युग के अनुरूप चल रहा हो,तो सब कुछ ठीक-ठाक ही मानना पड़ेगा।अब यह तो नहीं कहा जा सकता कि आदमी युग के अनुरूप चल रहा है अथवा युग आदमी के अनुरूप चल रहा है। युग आदमी से है या युग से आदमी है? यह निर्णय करना एक जटिल प्रश्न है ।क्योंकि अभी तो यह भी तय करना है कि ये युग क्या है? कुल मिलाकर यह कहना चाहिए कि सब कुछ अनुकूल ही चल रहा है।’अनुकूल’ के बाद ‘ही’ लगने से मुझे ‘अनुकूल’ कुछ कमजोर पड़ता प्रतीत होता है।इसलिए यही कहता हूँ कि सब कुछ अनुकूल चल रहा है।
इधर ‘अंधाधुंध दरबार है’ तो उधर ‘जिसकी लाठी है ,उसी की भैंस भी है।’ ‘जबरा मारे और रोने भी न दे। ‘ ये युग की परिभाषा बन चुकी है। इसलिए आदमी युग के अनुसार ही चले और यदि ‘ वे नीम को आम कहें तो आम कहने’ में ही भलाई है। अन्यथा होती सबके बीच तुम्हारी जग हँसाई है। ‘कमजोर की लुगाई सबकी भाभी होती है’,इस तथ्य से कौन अवगत नहीं है। इसलिए यदि गधे के गले में माला डाल दी जाय ,तो उसे स्वीकारने में ही तुम्हारी भलाई है।यह भी वर्तमान युग का एक रूप है।यह युग कहाँ से चलता है और कहाँ तक जाता है ,इसकी कोई तय मंजिल नहीं है।जिधर भीड़ जा रही हो ,उधर ही भेड़ बनकर चलते चले जाने में ही भलाई है।जहाँ थोड़ा -सा भी अपने दिमाग़ का प्रयोग किया ,बस वहीं तुम्हारी जान के लिए खतरा है।क्योंकि यहाँ सब जगह अंधा धुंध ही पसरा है।इसलिए अपने विवेक की आँखों पर पट्टी बाँधने में ही खैर है।क्योंकि अंधों को आँख वालों से बैर है।एक अंधे के लिए दूसरा अंधा ही अपना है, कोई भी नेत्रधारी से उसके लिए गैर है।
जहाँ भी जाइए,सब जगह एक ही रंग है। देखकर एक रंगीनी कोई भी नहीं दंग है। क्योंकि सबके ही हिए में एक ही चंग है।उसी की उमंग है।आज के युग का ये भी तो एक रंग है।जो भी रंग- विरोधी हुआ,उसका तो मटका होना ही भंग है। जब रंग की बात चली है तो मैं क्यों बताऊँ कि कौन-सा रंग है? जब आप एक ही रंग स्वीकारते हैं,तब तो आपको पता होगा ही आप किस रंग में रँगे हुए हैं? अपना रंग तो एक कागा भी पहचानता है और तोता भी। यदि नहीं रँगे तो अलग क्यों खड़े हुए हैं?जल्दी जल्दी रँग में रंग जाइए, वरना सबके रंग से अलग जब अपने को पाइए ,तो अलग खड़े – खड़े पछताइयए ,तरसाइये।बहुत सारे गधों के बीच एक घोड़ा अच्छा नहीं लगता,शोभित नहीं होता।बगुलों में कागा भी कुछ जमता नहीं।इसलिए युग के रंग में रंग जाइए। आप कहेंगे कि ऐसा क्यों ?क्या कोई जबरदस्ती है कि जिसमें सब रँगे हों उसी में रँग जाएँ?हमारा कोई रंग नहीं है।बताइए क्या करें? क्यों जबरन हमें किसी रंग में डुबाना चाहते हैं ?हम बेरंग ही सही। अरे !आप तो खाँम खां नाराज होने लगे। हम तो आपकी भलाई के लिए कह रहे थे।’महाजनो येन गता स पंथा:’।
पंजीरी एक प्रसाद है। जिसे कथा के समापन पर वितरित किया जाता है। यही परम्परा है। मानव जाति अनेक परंपराओं से बाँधी हुई है। बंधना पड़ता है।मेरे कहने का यही तात्पर्य है कि पंजीरी बंट रही है, बाँटने वाले अंधे हैं।इसके बावजूद उन्हें प्रापकों की खूब पहचान है कि पंजीरी किसे देनी है किसे नहीं।जैसे एक अंधा जब रेवड़ी बाँटने लगता है तो उसे अपने परिजन के अतिरिक्त कोई अन्य दिखाई ही नहीं देता।कहने भर को वह अंधा है; लेकिन घूम- घूम कर वह रेवड़ियाँ उन्हीं को देगा जो उसके अपने हैं। बस यही हाल दरबार- ए- हाल है कि वह गधों को पंजीरी बाँटे जा रहा है। बाँटे जा रहा है। और उधर गधे भी कोई कम गधे नहीं कि वे दोनों हाथ फैलाए पंजीरी लिए जा रहे हैं। लिए जा रहे हैं।मानो पंजीरी लुटाई जा रही हो।अंधे का दरबार में पंजीरी- वितरण और अंधों द्वारा रेवड़ी -वितरण में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है।प्रकारान्तर से एक ही बात है।
अब सम्भवतः आपकी समझ में आ गया होगा कि युग क्या है?कहाँ है ? युग निर्माता कौन है?आम या खास आदमी क्या है? आज का आदमी कूड़े का एक ढेर मात्र ही तो है। जिधर की हवा चली ,उड़ लेता है। जिस रंग में रंगना चाहो ,रंग जाता है। किसी न किसी रंग से तो उसे बनाना ही है नाता है।उसी रंग के गीत रात – दिन गाता है। बिना रंग के बेचारा शर्माता है। उसे तो झूला झुलाया जा रहा है।उसे आम खाने हैं ,पेड़ नहीं गिनने। इसलिए उसे पता ही नहीं कि उसे चूसा जा रहा है !उसके हाथ में रेवड़ी या पंजीरी पकड़ा दी जा रही है कि लो खाओ और मस्त रहो।कभी कोई झुनझुना दे दिया जाता है कि लो बजाओ और खेलो।टूट जाए तो हमारे पास आओ और दूसरा ले लो। बस एक ही काम मत करो कि ज्यादा अक्लवंदी मत पेलो। नहीं तो समझ लो बहुत बड़ी मुसीबत झेलो।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’