कभी कभी कुछ यूँ भी-
छोटी छोटी बातों पर भी खुल कर हँसने वाले यार,
याद आते हैं बिना बात ही अक्सर लड़ने वाले यार।
वक़्त आने पर जां हाज़िर है कहकर दौड़े आते थे,
दो रुपये की चाय की खातिर रोज़ मुकरने वाले यार।
प्यार मुहब्बत इश्क़ में जैसे मजनू ही हो जाते थे,
रोज़ नई लड़की को लैला कह कर मरने वाले यार।
कान पकड़कर क्लास रूम के बाहर हँसते मिलते थे,
यारों की यारी में अक्सर जमकर पिटने वाले यार।
इक दिन दुनिया को बदलेंगे सोच बनाये बैठे थे,
डिस्कोथेक में नाचते ख़ुद को मिथुन समझने वाले यार।
एक टिफ़िन में चार शेयरिंग,एक आम के टुकड़े चार,
कितने सादा दिल थे,ख़ुद को राजा कहने वाले यार।
बिल्ली की आवाज़ में घर के नीचे से चिल्लाते थे,
पहले शो की फ़िल्म देखने,प्लानिंग करने वाले यार।
अब भी ख़्वाबों में दिखते हैं बेपरवाह सजीले दिन,
अब भी ‘शिखा’ गले लगते हैं,पीड़ा हरने वाले यार।
— दीपशिखा