आज के सन्दीपनि हैं कवि गुरु सक्सेना
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कविता और काव्य में बहुत बड़ा अन्तर होता है। कविता अंश है और काव्य अंशी है। कविता लघु है काव्य का क्षेत्र व्यापक है। काव्य में गद्य, पद्य और चम्पू सब आते हैं। इसीलिए हर कविता काव्य तो है किन्तु हर तरह का काव्य कविता नहीं है। आकार में लघु होते हुए भी कविता काव्य का अर्क है व इसका अर्थ विस्तार किसी भी काव्य से विस्तृत व सीमा रहित है। कविता तो सरस्वती की वह मुखरा बेटी है, जिसे दुनिया की किसी भी भाषा में आसानी से साहित्यिक शिखर पर देखा जा सकता है। कविता युग को जगाती है। अपने युग को जाग्रत करना कवि का धर्म है। आज हम बात कर रहे हैं म.प्र.के नरसिंह पुर के हास्य और गम्भीर कविता के ख्यात व अनुकरणीय कवि कविवर गुरु सक्सेना की, जिन्होंने आधुनिक युग को जगाने के साथ – साथ उसे जगाने वालों को भी जाग्रत किया है, वहीं नव कवियों की नई पीढ़ी भी तैयार की है।
निश्चय ही कविता अवतरण है और यह कवि को मिला ईश्वरीय वरदान है तो भी इस कर्म की साधना बहुत कठिन है । इस वरदान के बल पर एक कवि गहरी अथवा उथली बात भी आसानी से कह लेता है। जिस कठिन बात को बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कह पाते हैं उसे कवि छोटी सी रचना के द्वारा कह जाता है इतना ही नहीं उसे कालजई बना देता है।
काव्येतिहास के आधुनिक काल में कुछ ऐसे विद्वान् कवि आए, जिन्होंने बुद्धि चातुर्य के बल पर कविता के आवरण और उसकी आत्मा को ही बदल दिया। कविता से इतर किसी विधा का रचनाकार कवि ही होता है लेकिन कविता के कवि होने के सम्मान के आकर्षण ने इन्हें इतना प्रभावित किया कि गद्यकार होने की महत्ता को ही भुला दिया। “गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।” जैसे सम्मानित कथन को ठेस पहुँचाने में कोई कमी न रखी। अपनी गद्य रचनाओं को कविता की संज्ञा देकर समाज में एक भ्रान्ति की उपस्थिति कर दी। विद्वानों ने छन्द मुक्त रचनाओं को नई कविता का नाम दे दिया।
भाव ही वास्तविक कविता है इस प्रकार के तर्क दिए जाने लगे। रचनाओं में परिवर्तन या परिमार्जन की आवश्यकता ही क्षीण हो गई। कुशल मार्गदर्शक की भूमिका शून्य हो गई। परिणाम यह हुआ कि कविता हार्दिकी न रहकर बौद्धिक हो गई। मितभाषी व निर्मलमन छ्न्दबद्ध असली रचनाकार हाशिए पर आ गए और चातुर्यगुण सम्पन्न होने से विद्वत्ता सम्पूजित होने लगी। अच्छा यह हुआ कि इन बौद्धिक रचनाओं के श्रवण और पाठन से ऊबे हुए श्रोताओं और पाठकों को अब तक अपनी पारम्परिक कविता के गुणों से विमोह नहीं हुआ था। इधर पारम्परिक कवि अभी भी कविता कर रहे थे। कोई भी धरा कभी बन्ध्या नहीं होती बीज वपन होते ही उर्वर हो जाती है। उसी तरह पारम्परिक छ्न्दवद्ध रचनाकारों ने अपनी रचनाओं को कवि सम्मेलनों व सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों और श्रोताओं के मध्य पहुँचाना प्रारम्भ किया और आज पुनः छ्न्दबद्ध कविता अपने वास्तविक रूप में आ गई। गीत अपनी मूल प्रवृत्ति में आ गया। रूखेपन की जगह सरस और लयमय गुनगुनाहट को स्थान मिल गया।
यद्यपि कविता और काम का कोई गुरु नहीं हो सकता क्योंकि कविता अवतरण है। वह मात्र सृजन नहीं है और काम स्वत: उद्भूत होता है, इसे सिखाया नहीं जाता, पशुओं की वृत्ति से इसे आसानी से समझा जा सकता है, फिर भी काम को आलम्बन तो चाहिए ही। ठीक इसी प्रकार कविता एक अवतरण होते हुए भी उसे सँवारने की कला सीखनी पड़ती है। यह अभ्यास और अनुभव से भी आ जाती है किन्तु उसमें सन्देह रहता है। इसलिए कवि के लिए काव्य शिल्प में पारंगत गुरु अवश्य होना चाहिए। कारण छन्द साधना का अत्यन्त कठिन होना भी है। कलागत शिल्प के सौन्दर्य की आभा को निखारने की विद्या मात्र एक गुरु ही दे सकता है। जिस प्रकार नव प्रसूता की कोख से बालक के जन्म लेने पर डॉक्टर की निगरानी में नर्सों द्वारा बालक के शरीर का शोधन किया जाता है, उसे स्वस्थ और जीवित रखने के लिए उपाय बताए जाते हैं ठीक वैसे ही कवि की हृदय पेटी से कविता का अवतरण तो होता है लेकिन उसमें कई दोष होते हैं जो भावगत अथवा शिल्पगत हो सकते हैं जिन्हें नवकवि अपनी क्षमता से दूर तो करता है किन्तु अज्ञानता बस उन्हें दूर नहीं कर पाता है। ऐसे में आवश्यकता होती है एक सफल मार्गदर्शक अथवा गुरु की जो हर दोष का हरण कर उसे परिमार्जित करा दे। यही कार्य कर रहे हैं कवि गुरु सक्सेना। गुरु छन्द के अधिकृत साधक हैं। कविताओं की वाचिक परम्परा में आपकी अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के मंचों पर लम्बी यात्रा का अनुभव और छन्द विधान के प्रति आपका समर्पण आपको युग का सिद्ध कवि सिद्ध करता है।
आपके आचार्यत्व में चल रही छ्न्द की गुरुकुल परम्परा में कितने ही नवागत और प्रतिष्ठित कवि दीक्षित हो रहे हैं। समूचे देश से उनके शिष्य इस गुरुकुल में छ्न्द सीख रहे हैं। इनकी रचनाओं को युग सुन समझ रहा है और पढ़ रहा है साथ ही सराह भी रहा है। यह उपलब्धि मात्र कवि की नहीं अपितु गुरु का परोक्ष प्रतियोग है। अतः कविवर गुरु सक्सेना आज के सन्दीपनि हैं।
कविताओं में छन्दानुशासन को बचाए रखना रंग और रूप से कविता के आवरण को बचाए रखना होता है। ईश्वर ने संसार को लयबद्ध किया है कवि काव्य के द्वारा समाज को लयबद्ध करता है। वह हास्य और उपहास्य का माद्दा रखता है। गाली से लेकर मन्त्र तक श्रृंगार से लेकर वीभत्स तक के कथ्य से सभी को आनन्द देता है। अपनी सन्देश परक रचनाओं से मानवता में नैतिकता का संचरण करता है वहीं वह सकल सृष्टि के स्वास्थ्य की चिन्ता करता है। कवि के अन्य गुणों के साथ इन सभी गुणों को भी देखना हो तो पढ़िए महाकवि प्रदीप के सम्मान से सम्मानित कविवर गुरु सक्सेना को।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”