कविता – कोहरा
उफ! ये पुस की जालिम ठंड
एक माह दूर खड़ी है बसंत
बाहर छाया है घना कोहरा
जीव जन्तु बने कोहरा का मोहरा
सूरज भी डर छुप कर आया है
किरण धरा को छू नहीं पाया है
कैसी है ये प्रकृति की ये तंज
जन जीवन के मन में है बड़ी रंज
पेड़ों के डाली पे धुंध का नजारा
ओस में नहाया तृण तृण सारा
खग वृन्द तरू पे मचाया है शोर
घना कोहरा छाया सर्वत्र घनघोर
ठंड से काँप रहे हैं बंदर मामा
धूप का दर्शन कब होगी मेरे भामा
कैसे करें हम आज नित्य स्नान
नदी की पानी ले लेगा मेरी जान
चलो करते हैं सूरज का हम इन्तजार
जरूर आयेगें नभ पे भास्कर मेरे यार
कभी नहीं है हमें ठंडक से प्यार
मेरे किरण आ जा मेरे प्यारे द्वार
— उदय किशोर साह