पूर्वा
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा ।
पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें उसके पति लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर लिपटकर आया था।
तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं ।
पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा – “बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।”
रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा – “का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के अनाथ नहीं कर सकते ।”
आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। “
रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।” बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली। अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा – “माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।”
आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये।
माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया –
“पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा।
रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में से एक ही को ला सकते हैं। “
रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न।
रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। “
रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में अन्तरा अउर पूर्वे न है।
रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम।
पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी।
तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी।
अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था।
दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी।
सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। वह नज़र पूर्वा की मौसी की जिठानी के बेटे लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा की थी। संयोग से पूर्वा की नज़रें भी उनकी नज़रों से टकराई और एक अल्हड़ मुस्कान के साथ झुक गईं। नज़रों के उठने और झुकने का क्रम जारी रहा जो कि उन दोनों की पहली अनुभूति थी। दोनों के हृदय में पहले प्यार का संचार हो चुका था।
पूर्वा दूल्हन को लेकर स्टेज पर पहुंच गई तभी एक बाराती जो दूल्हे का दोस्त लग रहा था ने ठिठोली की –
“यहाँ तो दो – दो दुल्हन आई है, अच्छा है लगे हाथ मैं भी वरमाला डालकर दुल्हन उठाकर ले जाता हूँ।”
पूर्वा ने भी तपाक से कहा – “अपने पापा जी से आदेश ले लिये हैं भाई साहब यहाँ भी दुल्हन तैयार बैठी है” पूर्वा ने दुल्हन की नौकरानी की तरफ़ इशारा करके कहा और मंच ठहाकों से गूंज उठा।
तभी बड़े – बुजुर्गों की आवाज़ आई -” जल्दी – जल्दी वरमाल का रसम पूरा करो तुम सब नाहीं त बियाह का मुहूरत निकल जायेगा।”
“जी बाबू जी “कहते हुए कर्मवीर मिश्रा स्टेज पर चढ़ गये।
दूल्हे के दोस्त दूल्हे को कंधे पर बिठा लिये।
तभी कर्म वीर और रणवीर दूल्हन को भी उठा लिये। दूल्हन भी होशियार निकली और मौके का फायदा उठाकर दूल्हे को वरमाला पहना दी । उसके बाद दूल्हे ने भी दूल्हन को वरमाला पहनाई । शंख, नगाड़े बजने लगे। सभी बाराती, सराती दूल्हा – दूल्हन पर अक्षत – फूल की बारिश कर रहे थे। तभी कर्म वीर मिश्रा के हाथों से अक्षत छिटककर पूर्वा पर जा पड़ा। पूर्वा इसे शुभ शगुन समझकर मन ही मन खुश हो रही थी। उसकी आँखों में भविष्य के सपने पलने लगे जिसमें कर्मवीर मिश्रा दूल्हा बना घोड़े पर सवार होकर आया है और वह दूल्हन बनी वरमाला लिये खड़ी है। उसके अंग – अंग में सिहरन पैदा हो रही थी ।
कहा जाता है न कि इश्क और रश्क छुपाये नहीं छुपता इसलिए इन दोनों के इश्क की ख़बर कर्मवीर मिश्रा की माँ रोहिणी जी को मिल गई और उनकी अनुभवी निगाहें दोनों के इश्क की इन्क्वायरी में लग गईं।
कर्म वीर किसी न किसी बहाने से पूर्वा के इर्द-गिर्द ही रहता।
इधर विवाह का मंत्रोच्चार हो रहा था और उधर रोहिणी की भी आँखों में पूर्वा को बहु बनाने के सपने पलने लगे।
उसने मन ही मन निश्चय किया कि अगले दिन अपनी देवरानी (पूर्वा की मौसी) से अपने बेटे के लिए पूर्वा को बहु बनाने की बात करेगी।
विवाह समारोह सफलतापूर्वक समाप्त हुआ। सुबह दूल्हन की बिदाई भी हो गई। एक – एक करके सभी मेहमान भी जाने लगे। रतजग्गा के कारण घर के सभी सदस्य बिस्तर पर बेसुध सोये हुए थे। लेकिन पूर्वा की आँखों से नींद गायब थी । वह सोच रही थी कि किसी दिन वह भी किसी अजनवी के साथ बांध दी जायेगी और अपने घर से विदा कर दी जायेगी। यह सोचकर उसकी आँखें भर आयीं। तभी कर्मवीर मिश्रा की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई ।
कर्मवीर मिश्रा बोले – “दोपहर का खाना तैयार है आ जाइये आप।”
पूर्वा – “जी.. जी आती हूँ और बाकी सभी लोग आ गये हैं ….?
कर्मवीर मिश्रा – जो सोयेगा सो खोयेगा जो जागेगा वो पायेगा… आप आइये ।”
कर्मवीर की बात सुनकर पूर्वा के अंदर सिहरन सी होने लगी। उसके पाँव थर – कांपने लगे। वह मन ही मन सोच रही है ” यह मुझे क्या हो रहा है?” फिर अपने आप को ही समझाती हुई अपने आप से ही कहती हैं – अरे पगली यही तो प्यार है, इतना भी नहीं समझती? “
पूर्वा यन्त्रवत कर्मवीर मिश्रा के साथ हो ली। खाना तो स्वादिष्ट बना ही था लेकिन अपने मनपसंद साथी के साथ खाने की एक अलग अलग ही अनुभूति हो रही थी दोनों को। दोनों ने ही एक दूसरे की आँखों में प्रेम की मौन स्वीकृति देखी। संयोग से रुक्मिणी जी की भी नींद खुल गई और वह जल्दी – जल्दी अपनी साड़ी ठीक करके आँगन की ओर जाने को हुईं तभी उन्हें उनकी देवरानी रजनी ( पूर्वा की मौसी) मिल गई।
रुक्मिणी ने अपनी देवरानी की तरफ़ मुखातिब होकर कहा – बहुत देर तक सोई रही मैं, सब लोगों ने खाना खा लिया? “
रजनी -” पता नाहीं हमहूं अबहिये उठे हैं। बेटी कि बिदाई के बाद घर केतना उदास हो गया है….. कहते – कहते रजनी रो पड़ी।
रुक्मिणी रजनी को सम्हालते हुए बोली – “एही से त बेटी को पराया धन कहा गया है। अब त एके उपाय है आपन कर्मवीर के बियाह कर दिया जाय।”
रजनी – “का बात कहीं दीदी। अभी हमहूं इहे बात आपसे करने वाले थे। कवनो लड़की – वड़की देखी हैं का?”
रुक्मिणी – “हाँ एगो त है, अगर तू चाहो तो बियाह झटपट हो जायेगा “
“हम……. रजनी ने अचरज से कहा।
रुक्मिणी – “अउर न तो का। ई पूर्वा आ करमवीर के जोड़ी कइसन रहेगा? उ देखो दोनो एक साथ केतना सुन्नर लग रहे हैं…..” रुक्मिणी ने अपनी उँगलियों से पूर्वा और कर्मवीर की तरफ़ इशारा करके कहा।
रजनी – “दीदी आप त हमरे मन की बात कह दीं। सांच कहे तो हम ई बारे में आपसे बात करना चाहते थे, बाकिर लाज के मारे कहे नहीं। अब एकबार लड़का – लड़की से पूछकर पाहुन से बात करेंगे हम। बिना माय के बेटी के आप जइसन माय मिल जायेंगी एसे बढ़िया अउर का हो सकेगा। अऊर आपन करमवीर त करम – धरम दूनो के वीर हैं। दीदीया के गुरहत्थी में बहुते गहना चढ़ा था। समुचे गाँव में शोर हो गया था कि एतना गहना केहू के न चढ़ा है। ऊ सब गहना दूनो बेटिये के न देंगे। आ खेत बाड़ी हइये है। दान दहेज में कवनो कमी न होगा। “
रुक्मिणी -” अरे छोटकी दान दहेज का का काम। कवनो हम दरिद्रा हैं कि दान – दहेज लेके बेटा का बियाह करेंगे। ई बात त करमवीर के सामने भुलाइयो के मत कहना न त………. “
रजनी -” ठीक है दीदी जी, अब हम पाहुन से बात करेंगे। अइसे त मीया बीबी राजी त का करेगा काजी… ( रजनी ने पूर्वा और कर्मवीर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा) तभियो दूनो के मन – मर्जी पूछ लेना चाहीं। जमाना बदल गया है। “
रुक्मिणी – “अच्छा ठीक है… तुम कहती हो तो पूछ लूंगी।
रुक्मिणी ने मौका देखकर अपने बेटे कर्मवीर से कहा –
“बेटा अब हम सोच रहे हैं तोहार बियाह करके निश्चिंत हो जायें। हमको तो तोहरे लिये पूर्वा बड़ी पसंद है, तुम का कहते हो? “
धर्मवीर मिश्रा अपनी खुशी को छुपाते हुए – “अम्मा आपको जो मन, यह तो आपका विषय है। इसमे हम क्या बोल सकते हैं।”
रुक्मिणी – “तो ठीक है, हम ठीक करते हैं बियाह। “
रुक्मिणी खुशी – खुशी रजनी के कमरे में गई और उससे कहा कि -” छोटकी हम करमवीर से बतिया लिये हैं अब तू भी पूर्वा से पूछकर बात आगे बढ़ाओ।”
रजनी -” हाँ – हाँ दीदी अब हम बतियाते हैं। पाहुन मानेंगे कइसे नहीं? दीया लेके खोजने पर भी कर्मवीर जइसन लइका उनको नहीं भेटायेगा। ई देखिये पूर्वा भी आ गई। अब एही लगले इससे भी पूछे लेते हैं। “
रजनी ने पूर्वा को आते हुए देखकर रुक्मिणी से कहा और पूर्वा मुस्कुरा कर शर्माती हुई मौन स्वीकृति दे दी।
रजनी रामानंद मिश्रा को अपने कमरे में बुलाकर पूर्वा और कर्मवीर की शादी की बात कही तो रामानंद मिश्रा की आँखों में खुशी और गम के आँसू छलछला आये। उन्होंने रजनी से कहा –
“आप पूर्वा की मौसी हैं जे कि माय के जइसन होती हैं। ऎसे बढ़िया का बात होगा कि पूर्वा अपने मौसी के घर आये। बस हम माई (पूर्वा की दादी) से पूछ कर आपको बताते हैं।”
रामानन्द और पूर्वा को अगले दिन लौटना था। पूर्वा और कर्मवीर मिश्रा की आँखों से नींद गायब थी। दोनों के ही मन में एक-दूसरे से मिलकर बातें करने की इच्छा तीव्र हो गई लेकिन संकोच वश दोनों ही मन मसोस कर रह गये। दोनों की ही रात करवटें बदल – बदल कर बीती।
अगली सुबह कर्मवीर मिश्रा जल्दी ही उठ गये और आंगन में गये तो संयोग से पूर्वा भी वहीं मिल गई ।
कर्मवीर मिश्रा की आँखें चमक उठीं। उन्होंने ने पूर्वा के पास जाकर शरारत भरे अंदाज में कहा –
“बारात लेकर जल्दी ही आऊँगा, आप तैयार रहिएगा।”
पूर्वा मुस्कराकर आँखें झुका ली।
घर पहुंच कर जब रामानंद जी ने अपनी माँ से पूर्वा का विवाह कर्मवीर से करने की बात की तो उनकी माँ ने कहा – “हमार पूर्वा अइसन है ही की जे देखे देखते रह जाये।”
“कर्मवीर भी कवनो कम नही है माय। लो ई फोटो देख लो। समुचे गाँव में शोर हो जायेगा दुलहा देख कर।” रामानंद जी ने अपनी माँ को कर्मवीर मिश्रा की तस्वीर दिखाते हुए कहा।
आनन्दी जी – अब आजे पंडित जी के बोला के दिन देखा लो। शुभ काम में देर नहीं किया जाता।
रामानंद जी ने पंडित जी को बुलाकर कहा –
पंडी जी बढ़िया से पतरा देख के कवनो शुभ दिन निकालिये। “
पंडित जी ने पत्रा देखकर विवाह का दो – चार शुभ दिन निकाल कर रामानंद जी को दिखाया और रामानंद जी ने पंडित जी द्वारा निकाला हुआ दिन पूर्वा की मौसी रजनी को भेज दिया।
सभी की सहमति से तीन महीने बाद ही बसंत पंचमी की शुभ तिथि को विवाह का दिन रखा गया।
आनन्दी जी अपनी पोती की शादी में और रामानंद अपनी बेटी की शादी में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। वह मन ही मन सोच रहे थे कि आजकल के इस भौतिक युग में कौन बिना दहेज का विवाह करता है। चलो माना कि हमारा जो भी है वह बेटी का ही है लेकिन बारात का खर्च, जेवर कपड़े आदि का खर्च लड़के वाले खुद उठा रहे हैं यह साधारण बात है क्या। कितनी जगह तो पूर्वा के विवाह की बात इसलिए भी कट गई थी कि हमारा कोई बेटा नहीं है। लड़के वालों लड़के वालों ने साफ कह दिया कि बिना भाई की बेटियाँ मन बढ़ होती हैं और दूसरी बात कि लड़की का ध्यान अपने ससुराल से अधिक मायके में लगा रहेगा जिसकी वजह से वह लड़के पर भी दबाव बनायेगी अपने मायके के लोगों को करने के लिए।
इसलिए भी वह इस विवाह से बहुत ज्यादा ही खुश थे।
विवाह भले ही गाँव से हो रहा था लेकिन टेन्ट, सामयाना, हलवाई आदि शहर से मंगवाया गया था ।
रामानंद जी विवाह का मेनू भी अपनी समधन से पूछ कर ही रखवाया। भले ही उसमे दो – चार व्यंजन जोड़ ही दिया।
द्वार की साज – सज्जा तो ऐसी हुई मानो राजा का राज महल हो। जयमाला का मंच असली गुलाब और बेली के फूलों से सजाया गया था। दूल्हा – दूल्हन के बैठने का सिंहासन लग रहा था कि देवलोक से मंगाया गया था।
इधर पूर्वा की सखि – सहेलियाँ पूर्वा के साज – श्रृंगार में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं। उस गाँव में भी एक लड़की थी जो ब्यूटीशियन का ट्रेनिंग लेकर आई थी लेकिन पूर्वा की दादी ने कठोरता से कहा था – ं
जे करिया – कुरूप होता है ऊ न एसियल – फेशियल कराके सुन्नर बनता है, हमार पूर्वा त असहियें दम – दमकती है एसे पूर्वा के पेंट पाॅलिश करे के जरूरत नहीं है।
आनन्दी जी की बात तब और तर्कसंगत लगी जब पूर्वा दूल्हन के जोड़े में हाथों में वरमाल लिये परिजनों तथा सखियों के साथ आती दिखी। । लाल बनारसी में लिपटी पूर्वा, माथे पर लाल बिंदी, दोनों हाथों की कलाइयों में भरी-भरी चूड़ियाँ, बड़ी-बड़ी आँखों में काले काजल, कानों में झुमके, गले में चन्द्रहार, कमर में करधनी से सुसज्जित पूर्वा किसी देवकन्या सी लग रही थी। पूर्वा की छोटी बहन अन्तरा राहों में फूल बिछाते जा रही थी।
उधर अपने दोस्तों से घिरे कर्मवीर मिश्रा जयमाल के मंच पर आ चुके थे। जब उनकी नज़र पूर्वा पर पड़ी तो वह अपनी किस्मत लिखने वाले ब्रम्ह का दिल ही दिल में आभार प्रकट कर रहे थे। दूल्हा दूल्हन की जोड़ी देखकर बुजुर्ग महिलाएँ राम – सीता की जोड़ी कह कर वर – वधु को मन ही मन प्रणाम कर रही थीं। इधर पूर्वा की बहन अन्तरा पर जैसे ही कर्मवीर मिश्रा के भाई रणवीर मिश्रा की नज़र पड़ी तो वह हट ही नहीं रही थी।
यह देखकर अन्तरा की सखियों ने अन्तरा से चुहल की – “दीदी तेरा देवर दीवाना……..”
अन्तरा शरमा गई । हँसी ठिठोली के बीच जयमाला का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
ढोलकी की थाप पर कर्ण प्रिय लोक गीतों और पंडित जी के मंत्रोच्चार आपस में युगलबंदी कर रहे थे। ऐसे सुन्दर और पावन निशा में एक – एक करके विवाह की सारी रस्में पूरी हुईं।
सुबह मंडप में दूल्हा के साथ – साथ उसके भाई तथा मित्र भी आये। सबसे पहले आनन्दी जी ने कर्मवीर मिश्रा को तीन तोले की मोटी चेन पहनाई और रणवीर मिश्रा को अंगूठी, साथ ही मंडप में आये मित्रों को एक – एक हजार रुपये। इसी तरह बड़े छोटे के क्रम से सभी परिजनों ( चाची, बुआ, मौसी दीदी आदि) ने भी अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार दूल्हे और उनके भाई तथा मित्रों को उपहार देकर रस्म पूरी कीं। उसके बाद दूल्हे को कोहबर में ले जाकर घर भराई की रस्म हुई और अंततः समय आ गया बिदाई का। सभी की आँखें गीली थीं। आनन्दी जी ने कर्मवीर मिश्रा से कहा –
” बाबू हम हमार पूर्वा के ध्यान रखना।”
कर्मवीर मिश्रा – “आप निश्चिंत रहिये दादी, मेरे जीते जी पूर्वा हमेशा खुश रहेगी।”
अन्तरा को रोते हुए देखकर रणवीर मिश्रा ने थोड़ा चुहल करते हुए कहा – “अरे आप क्यों रो रही हैं बस सामान पैक कीजिये और चलिये अपनी जीजी के साथ-साथ, बन्दा हाजिर है आपकी खिदमत में।”
रणवीर मिश्रा की बातों से बिदाई के गमगीन माहौल में भी सभी के होठों पर मुस्कान खिल गई।
मायके की दहलीज़ पारकर पूर्वा अपने जीवनसाथी के संग कार में बैठकर ससुराल की दहलीज़ पर पहुंच गई।
रुक्मिणी पूरी तैयारी के साथ अपने बेटे – बहु के स्वागत में द्वार पर खड़ी थी। साथ में नाऊन भी पीतल की चमचमाती थाली में सिन्होरा, लोढ़ा ( मशाला पीसने वाला सिलबट्टे का बट्टा), पान – सुपारी, रोली, अक्षत – चावल लेकर खड़ी थी। रिस्तेदार तथा पड़ोस की औरतें साज – श्रृंगार करके गीत गा रही थीं। कार का दरवाजा खोलकर सबसे पहले रुक्मिणी जी ने पूर्वा पर अक्षत फूल छिड़क कर उसका घूंघट उठाया और उसके मांग में पाँच बार सिंदूर लगाने के बाद लोढ़ा से पाँच बर परिछावन ( लोढ़े को दूल्हन के सिर के ऊपर से बाँयें से दाहिनी तरफ़ घुमाया) किया। उसके बाद पूर्वा भी अपनी सास रुक्मिणी के मांग में पाँच बार सिंदूर भरा। इस प्रकार पाँच सुहागिनों ने पूर्वा का परीछ किया। उसके बाद घर की काम करने वाली आया एक लाल – पीले रंग से रंगा दो दौरा (बहुत बड़ा सा बांस का डलिया) कार कार के पास लेकर आई और उस दौरे पर आगे कर्मवीर मिश्रा खड़े हुए फिर पीछे पूर्वा इस प्रकार दौरा में डेग डालते हुए कोहबर तक दूल्हा – दूल्हन को ले जाया गया। दूल्हा दूल्हन को रसियाव (बिना दूध का खीर) और दाल भरी पूड़ी खिलाकर दूल्हा को बाहर भेज दिया गया और फिर शुरु हुआ दूल्हन की मुंहदिखाई का रस्म शुरू हुआ जिसमें सबसे पहले रुक्मिणी जी ने दूल्हन को अपना खानदानी सीता हार दिया और बाद में क्रम से अन्य परिजन तथा अड़ोसी – पड़ोसियों ने भी अपने सामर्थ्य के अनुसार गहने तथा रूपये देकर मुंहदिखाई का रस्म पूरा किया।
रतजगा और रस्म रिवाजों के बीच पूर्वा काफी थक चुकी थी। उसका मन हो रहा था कि जमीन पर ही सो जाये। तभी रुक्मिणी जी ने सभी औरतों को कमरे में से बरामदे में ले जाकर मुंह मीठा कराया और धीरे से पूर्वा से आकर कहा कि अब तुम आराम करो बहुत थक गई होगी। रुक्मिणी जी की बात सुनकर पूर्वा को ऐसा लगा जैसे उन्होंने उसकी दिल की बातें सुन ली हों।
शाम को रुक्मिणी जी की आवाज से पूर्वा की नींद खुली। रुक्मिणी जी ने पीली कामदार साड़ी देते हुए कहा –
” दुलहिन इ साड़ी पहन लेना। अभी हम रजनी को भेजते हैं।”
थोड़ी ही देर में रजनी आयी और पूर्वा को इस घर के सभी लोगों के बारे में बताते हुए तैयार करने लगी। जब पूर्वा तैयार हो गई तो रजनी ने उसके चेहरे को ममता भरी नज़र से उसे देखा तो उसकी आँखें भर आयीं। उसके मुंह से अचानक निकल आया –
” एकदम दीदी जैसी हो तुम। “
अपनी मौसी की आँखों में आँसू देखकर पूर्वा की भी आँखें भर आयीं।
रजनी ने उसके आँसू पोछते हुए कहा –
“आज रोने के नहीं खुशी के दिन हैं। अभी बहुत से काम हैं। मैं अब बाहर जाती हूँ। “
पूर्वा अपने आप को आईने में देखकर अपने ही रूप पर मुग्ध हो गई। वह इतनी सुन्दर है उसे आज पता चला। वह आत्मविश्वास से भर गई और अपने राजकुमार के साथ कल्पना के घोड़े पर सवार होकर सुहाग सेज पर जा पहुंची। उसका अंग – प्रत्यंग सिहरने लगा। वह छुई-मुई सी अपने प्रीतम की बाहों में सिमटने लगी। शरद ऋतु में भी पसीने से तर-बतर होने लगी। तभी किसी की आहट से उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने मुड़ कर देखा तो उसके सामने सचमुच उसके राजकुमार प्रकट हो चुके थे।
कर्मवीर मिश्रा सुहाग सेज पर अपनी पत्नी के रूप में पूर्वा को अपलक देख रहे थे। पूर्वा की पलकें झुक गईं।
कर्मवीर मिश्रा ने पूर्वा के गले में एक सोने की चेन पहनाई जिसमें एक दिल के आकार के लाॅकेट में उन दोनों की तस्वीर थी। पूर्वा की पलकें अभी भी झुकी हुई थीं। वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी लेकिन उसके होठ उस समय सिल गये थे। वह थर – कांप रही थी।
कर्मवीर मिश्रा पूर्वा का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरकर उसके माथे पर चुम्बन जड़ दिया। पहली बार किसी पुरुष का स्पर्श पाकर पूर्वा के तन – बदन में सिहरन पैदा हो गई। दोनों की सांसों की सरगम निशा की मधुर वेला में बज उठीं । साथ में धड़कनें भी युगलबंदी करने लगीं। पूर्वा कर्मवीर मिश्रा की बलिष्ठ बांहों में सिमटी जा रही थी। उसका तन – मन समर्पण के लिए तैयार था। पुरुष और प्रकृति का मधुर मिलन हो रहा था। पूर्वा को दर्द का आभास हुआ तभी कर्मवीर मिश्रा की हथेलियां पूर्वी के मुंह पर जा पहुंची। अब सासों के साथ – साथ पायल और चूड़ियाँ भी युगलबंदी करने लगीं। दो दिलों की लहरों का उफान शांत हुआ और दोनों तृप्त होकर एक-दूसरे की बाहों में सो गये।
सुबह के छः बज गये थे। पूर्वा जल्दी – जल्दी उठकर नहाने चली गई क्योंकि उसकी दादी ने उसे समझाया था कि ससुराल में सुबह – सुबह ही उठ जाना क्योंकि सवा महीने तक मांग बहोराई का रस्म होता है।
पूर्वा जैसे ही नहाकर निकली रुक्मिणी जी कमरे में आ चुकी थीं। दरवाजा कर्मवीर मिश्रा ने ही खोला था।
रुक्मिणी जी पूर्वा को पूरब की तरफ़ मुंह करके बैठाकर पूर्वा की मांग में पाँच बार सिंदूर लगाया और मिठाई खिलाकर अखंड सौभाग्यवती होने का आशिर्वाद दिया। पूर्वा ने अपने आँचल के कोरों को हाथ में लेकर अपनी सास को पाँच बार प्रणाम करके एक संस्कारी बहु होने का प्रमाण दिया।
बिवाह के दसवें दिन रात को करीब दस बजे होंगे। दोनों की सासों की लय के साथ धड़कने ताल मिला रही थीं। चूड़ियों की खनक और पायल की झनक के मधुर झंकार के बीच मोबाइल की घंटी कर्णभेदी लगीं। कर्मवीर मिश्रा के हाथ यंत्रचालित से पूर्वा की हथेलियों से छूटकर मोबाइल की तरफ़ बढ़ गये। मोबाइल पर बातें करते हुए अपने पति के हाव – भाव देखकर पूर्वा को अंदाजा लग गया था। कर्मवीर मिश्रा ने कहा सीमा पर युद्ध छिड़ गया है। मुझे जाना पड़ेगा। आप मुझे एक वीर योद्धा की पत्नी की तरह विदा करेंगी। वादा कीजिये आप मेरी कमजोरी नहीं ताकत बनेंगी। पूर्वा अपने पति के सीने से लग कर अपनी सिसकियाँ रोकने का प्रयास करने लगी। कर्मवीर मिश्रा उसके आँसुओं को पोछते हुए उसके माथे पर अनगिनत चुम्बन जड़ दिये। वह रात दोनों की एक-दूसरे की बांहों में जागकर कटी।
सुबह-सुबह कर्मवीर मिश्रा को विजय तिलक लगाकर रुक्मिणी और पूर्वा ने सजल नयनों से मुस्कुराकर विदा किया।
उधर सीमा पर युद्ध चल रहा था और इधर पूर्वा और रुक्मिणी के हृदय में। रुक्मिणी ने अपने पुत्र की सलामती के लिए अनुष्ठान रखा तो पूर्वा अपने सिंदूर की सलामती के लिए। कर्मवीर मिश्रा बहादुरी से लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गये।
जब यह ख़बर मिली तब रुक्मिणी पूर्वा का मांग बहोर रही थीं। ख़बर सुनकर उनके हाथ से सिंदूर का डिबिया छिटक गया। दोनों साथ बहु वहीं जमीन पर बिन पानी की मछली की तरह छटपटाने लगीं। उनकी आँखों की बाढ़ सारे सपने बहा ले गई। उनके इर्द-गिर्द गाँव के लोगों की भीड़ जमा हो गई। सभी रुक्मिणी और पूर्वा के साथ रो रहे थे। किसी के पास भी उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। रोते – पीटते दोनों सास – बहु मुर्छित हो जातीं और उनके परिजन उन्हें पानी, शर्बत आदि पिलाकर होश में लाने की कोशिश करते।
गाँव वाले अपने परमवीर सपूत कर्मवीर मिश्रा की अर्थी सजा रहे थे। चौबीस घंटे के बाद कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर एक तिरंगे में लिपटकर ताबूत में आया। रुक्मिणी और पूर्वा के विलाप से आसपास में उमड़ी भीड़ का हृदय पिघल कर आँखों से बरस पड़ा। उधर अर्थी उठी और इधर एक सुहागन की चूड़ियाँ तोड़ कर माथे की बिंदिया मिटा दी गई। सिंदूर पोछ दिया गया। जिस मायके से लाल – पीली साड़ियाँ और कांच रंगबिरंगी चूड़ियाँ आने को थी वहाँ से सोने के कड़े और सफेद साड़ी का उपहार आया। पूर्वा बुत बनी कुरीतियों का दंश झेल रही थी। असहाय रुक्मिणी चाहकर भी इस कुप्रथा को रोक नहीं पा रही थी।
कर्मवीर मिश्रा के छोटे भाई रणवीर मिश्रा ने उन्हें मुखाग्नि दी। दृश्य कारुणिक था किन्तु यही जीवन का सत्य है जिसे मनुष्य को स्वीकार करना ही पड़ता है।
पति के बिना पूर्वा की जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी। अवसाद में आकर वह अपने कमरे में ही साड़ी से फांसी का फंदा बनाकर पंखे से लटकने ही जा रही थी कि रणवीर मिश्रा आ गये और उसे बचा लिये तो पूर्वा ने उनसे बिलखते हुए कहा –
” मुझे क्यों बचाया आपने? अब वे ही चले गये तो मैं जिन्दा रहकर क्या करूंगी।”
रणवीर मिश्रा – “भाभी क्या आप अकेली ही यह दुख सह रही हैं? मैंने भी तो अपना भाई खोया है और माँ ने भी तो अपना बेटा खोया है। आपने यह नहीं सोचा न कि आपने भैया के साथ सिर्फ दस दिन गुजारा है तो यह हाल है और मेरा तो बचपन उन्हीं के साथ बीता है। हमारा क्या हाल है इसपर आपने विचार किया। मरकर भी आपकी भैया से भेंट हो जाती तो मैं आपको छोड़ देता मरने के लिए। आपको ही क्यों हम सब आपके साथ हो लेते। लेकिन जाने वालों का पता ठिकाना मालूम हो तो न। अब आप मेरे भैया की अमानत हैं तो आपके दुख – सुख का खयाल रखना मेरी जिम्मेदारी है। “
रुक्मिणी कमरे के बाहर बुत बनी अपने बेटे की बात सुन रही थी। उसने सोचा कि जब उसका रणवीर स्वयं ही पूर्वा की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार है तो क्यों नहीं उसे यह जिम्मेदारी दे ही दी जाये इसलिए उसने मन ही मन निर्णय लिया कि वह पूर्वा का विवाह रणवीर से कर देगी।
रुक्मिणी ने पूर्वा का नाम काॅलेज में एम ए करने के लिए लिखा दिया और उसके लिए शहर जाकर रंगबिरंगे शलवार सूट लाई। ऐसा उसने यह सोचकर किया कि पूर्वा एक विधवा नहीं कुंवारी लड़की की तरह दिखे। वह पूर्वा से ही रणवीर के लिए खाना आदि भिजवाती रहती और हमेशा इस कोशिश में लगी रहती कि पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के करीब आयें।
पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे का काफी खयाल रखने लगे। अक्सर ही वे किसी न किसी टाॅपिक पर एक-दूसरे के साथ बोलते – बतियाते रहते। यह सब देखकर रुक्मिणी को काफी तसल्ली मिलती, क्योंकि उसे लगता था कि वह अपने उद्देश्य में कामयाब हो रही है। फिर रुक्मिणी ने सोचा कि अब रणवीर से इस बारे में बात करनी चाहिए इसलिए रणवीर को एकान्त में पाकर उसने कहा – “बबुआ फुर्सत में हव त एगो बात करना है।”
रणवीर – “हाँ कहिये माँ ।”
रुक्मिणी – “बहुते दिन से मन में सोच रहे थे बाकि सोच रहे थे कि कहे के चाहीं कि ना। बाकि आज कहिये देते हैं।
रणवीर -” आप कहिये तो। “
रुक्मिणी – हमसे पूर्वा के इ हालत देखल ना जात है। हम सोच रहली कि पूर्वा के बियाह कर दें।
रणवीर -” अहे माँ यह तो बहुत अच्छा विचार है। बल्कि मैं भी आपसे यही कहने वाला था। आखिर भाभी की उम्र ही क्या है। मुझसे भी उनकी तकलीफ़ देखी नहीं जाती।”
रणवीर की बातें सुनकर रुक्मिणी अपनी बात कहने के लिए बल मिल गया और उसने रणवीर से पूछा – “
” तोहके पूर्वा पसन्द है न?”
रुक्मिणी के इस प्रश्न से रणवीर अचम्भित होते हुए पूछा –
“हाँ माँ भाभी तो अच्छी हैं ही लेकिन आप मुझसे क्यों पूछ रही हैं?”
रुक्मिणी – “क्योंकि हम चाहते हैं कि पूर्वा इसी घर की बहु बनल रहे। एही से तू पूर्वा से बियाह क ल। “
क्या कह रही हैं माँ? आपको अंदाजा भी है। मुझे भाभी अच्छी लगती हैं लेकिन सिर्फ भाभी के नजरिए से। मैंने कभी उनको इस नजरिए से देखा ही नहीं जो आप कह रही हैं।”
रुक्मिणी -” त अब देख ।”
रणवीर – “ये मुझसे नहीं हो सकेगा।”
रुक्मिणी – “हो जायेगा। कोशिश कर आ बइठ के आराम से हमरा बात पर विचार कर। “
रणवीर के द्वारा ना कहने के बावजूद भी रुक्मिणी को भरोसा था कि रणवीर मान ही जायेगा इसलिए उसने इस बारे में पूर्वा के पिता रामानंद बाबू से भी बात की कि वे पूर्वा को रणवीर से विवाह करने के लिए तैयार करें।
चूंकि ब्रामण समाज में लड़कियों का दूसरे विवाह की परम्परा नहीं है इसलिए पूर्वा के रामानंद बाबू को रुक्मिणी का यह प्रस्ताव अच्छा तो नहीं लगा फिर भी अपनी बेटी का भविष्य सोचकर उन्होंने रुक्मिणी की बात मान कर पूर्वा को समझाने का आश्वासन दे दिया।
काफी हिम्मत जुटाने के बाद रामानंद बाबू ने रुक्मिणी जी के द्वारा दिये गये प्रस्ताव को पूर्वा के सामने रखते हुए पूर्वा को समझाना चाहा तो पूर्वा चीख पड़ी। उसने अपनी आँखों के आँसुओं को पोछते हुए कहा –
” बाबू जी यह मुझसे नहीं होगा। मैं अपने पति की यादों के सहारे जी लूंगी। और पढ़ाई भी तो कर रही हूँ तो कुछ न कुछ तो कर ही लूंगी। आप मेरी फिक्र छोड़ दीजिये।”
रामानंद बाबू – “कैसे छोड़ दूँ। मैं तोहार बाप हैं । तू अकेले जीना भी चाहोगी त ई दुनिया तोहरा के जीये न देगी। रुक्मिणी जी महान महिला हैं जिनका मन में एतना बढ़िया विचार आया है। कवनो जल्दी न है तू आराम से सोच विचार कर लो। “
इस बात के बाद से पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के सामने आने से कतराने लगे।
फिर भी रुक्मिणी ने हार नहीं माना और उसने दोनों पर भावनात्मक दबाव डालना शुरू कर दिया।
आखिर में न चाहते हुए भी पूर्वा और रणवीर को एक-दूसरे की बात माननी पड़ी और दोनों विवाह बंधन में बंध गये।
विवाह बंधन में बंधने के बावजूद भी पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के मन से नहीं बंध पाये। पूर्वा अपने रूम में रहती तो रणवीर अपने रूम में।
रुक्मिणी फिर भी हार नहीं मानी और उसने अपना प्रयास जारी रखा।
होली का दिन था। प्रकृति रंगों से सराबोर थी। बसंत ऋतु की हवाओं में ही ऐसा खुमार होता है कि बुढ़े भी अपने-आप को जवान महसूस करने लगते हैं फिर दो जवां दिल कब तक एक-दूसरे से दूर रह सकते हैं।
यही सोचकर रुक्मिणी ने रणवीर और रुक्मिणी की ठंडई में थोड़ा सा भांग मिला दिया।
भांग का असर ऐसा हुआ कि पूर्वा को रणवीर में अपना पूर्व पति कर्मवीर नज़र आने लगे। पूर्वा ने हाथों में गुलाल लेकर रणवीर के गालों में मल दिया। फिर रणवीर भी कैसे पीछे रहता। भांग का नशा दोनों पर चढ़ने लगा। दोनों एक-दूसरे में सिमटने लगे। दो तन एक हो गया।
उस रात रुक्मिणी को सपना आया कि कर्मवीर कह रहे हैं – “माँ मैं आ रहा हूँ।”
नवे महीने पूर्वा ने एक पुत्र को जन्म दिया। रुक्मिणी को
को लगा कि उसका कर्मवीर पुनः उसकी गोद में आ गया है।
तभी रणवीर की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने उसने अपने आँसुओं को झटपट पोंछ डाला।
प्रांगण में झंडा फहराया गया। जय हिन्द की ओजस्वी संगीत पर मदमस्त हो झूम – झूम कर हवाओं के डांस फ्लोर पर तिरंगा कमरतोड़ नर्तन कर रहा था। आखिर करे भी क्यों नहीं अपनी गौरवगाथा सुन कर मन मयूर नृत्य करने के लिए तो मचल उठता ही है ।