लघुकथा – दाल – फुलका
आदत के अनुसार शाम के वक्त मैं रोज पार्क में घूमने निकल जाता हूं । वहां कई लोग मिल जाते हैं । कुछ खेलते हुए बच्चे तो कुछ पढ़ते हुए बच्चे । कई अपने हमउम्र मित्र भी इसी बहाने मिल जाते हैं । कल शाम को जब मैं पार्क में घूम रहा था तो मेरे पड़ोस मैं रहने वाले उमेश बाबू का बेटा पार्क में पढ़ रहा था ।
मैंने पूछ लिया बेटा क्या पढ़ रहे हो? बोला -“अंकल कल मेरा हिंदी का एग्जाम है निबंध याद कर रहा हूं”। मैंने कहा -“बेटा कौन सा निबंध याद कर रहे हो? तो वह बोला-” अंकल भारत में फैला भ्रष्टाचार”। मैंने कहा -“ठीक है बेटा शाबाश याद कर लो “।
घूमते घूमते मैं थोड़ी दूर आगे निकला तो मेरा मित्र सुधीर मिल गया । वह मुझे काफी दिनों बाद यहां मिला था। मैंने पूछ लिया-” सुधीर भाई बड़े दिनों बाद दर्शन हुए आजकल कहां रहते हो?”
तो वह बोला-” भाई आजकल मैं यहां से ट्रांसफर हो गया हूं। मैंने कहा-” तभी आप बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिए”।
फिर मैंने पूछ लिया-” आपने खुद ट्रांसफर करवाया है या सरकार ने आपका ट्रांसफर कर दिया ? आप तो सरकार की ही पार्टी के आदमी हो फिर यह ट्रांसफर कैसे ? “
तब वह बोला -“भाई मैंने अपना ट्रांसफर खुद करवाया है। यहां से लगभग पचास किलोमीटर दूर है मेरा स्टेशन । छोटा सा कस्बा है ।
यहां शहर में जहां मेरी ड्यूटी थी वहां हर हफ्ते कोई न कोई चला रहता था और इन अधिकारियों को या उनके रिश्तेदारों को अटेंड करने में ही मेरा सारा वेतन खर्च हो जाता था । ऊपर से यहां कोई आमदन भी नहीं थी । अब मैं यहां हूं वहां दूरदराज का क्षेत्र है और कोई नहीं आता ।
वहां थोड़े बहुत काम भी चले हुए हैं । इससे मेरा वेतन भी बच जाता है और दाल फुलका भी निकल जाता है ।”
वह एक ही सांस में सब कुछ कह गया था। उधर पार्क में बैठा बच्चा अभी भी निबंध रट रहा था।