कविता

ठौर नहीं होगा

यलगार करने के लिए

कोई वक्त मुक़र्रर नहीं होता,

हर समय किया जा सकता है,

वो दौर और था कि

महिलाएं,बच्चे,दलित,आदिवासी,

खामोश रह सब सहा करते थे,

डर कहें या अमानवीय नियम

ये हद से ज्यादा हद में रहा करते थे,

पर आज का दौर और है,

हर जगह इनका हक़ व ठौर है,

ये हक़ हमें संविधान ने दिया है,

जिनकी रक्षा का हमने प्रण लिया है,

वो संविधान जो सबको सम मानता है,

अधिकारों को छीनना अक्षम्य मानता है,

एक स्त्री को घर तक सीमित क्यों रखना?

वह किसी पुरूष से कम नहीं,

उसके बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में

किसी को दमित करना,

किसी का हक़ मारना,

जान कर जातिय दुर्व्यवहार उभारना,

कुछ कुंठितों का शगल है,

मगर वे मत भूलें कि ये सब

यदि अपने पर उतर आए,

तो मुंह छिपाने के लिए

कहीं भी सुरक्षित ठौर नहीं होगा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554