एक भिखारिन
वह फटी पुरानी साड़ी में लिपटी थी। हाथ में एक तीन साल के बच्चे को संभाले हुए। चेहरे पर मलीनता के बादल मंडरा रहे थे। होठों पर पपड़ी जमी थी। कई दिन से नहाई नही थी। पैर में बिवाई फटी थी। जवानी धूमिल हो गई थी। पेट पिचका था। गालों में कोई ताजगी नहीं थी। लग ऐसा रहा था कि कई दिन हो गए भरपेट भोजन नही मिला हो।बच्चा हर खाने वाली चीज को ललचाई नजरों से देख रहा था। ह्रदय को बेधने वाला दृश्य था।
इलाहाबाद की सिविल लाइन की वीआईपी सड़क से होकर वह भिखारिन हाथ में कटोरा थामे एक चमचमाती कार से उतर रहे एक साहब से कहा…. “बाबूजी दे दो…दो दिन से कुछ नहीं खाई हूं…बच्चा भी भूखा है…भगवान भला करे, आपकी कद और ऊंचा हो जाए “
जैसे बाबूजी की बेइज्जती हो गई। सीना और जैसे तन गया हो। वह गुस्से में हो गया जैसे सीने में कोई मारा हो। बच्चा भूखा है…काहे पैदा कर ली…. बड़बड़ाते हुए उस भिखारिन पर बिना ध्यान दिए कदम आगे की तरफ हो गए। बेचारी पीछे-पीछे वह भी चल दी। इस आशा से चल दी कि बड़ा आदमी थोड़ा देर में पिघलता है। बोली……..बाबूजी, बहुत गरीब हूं, भूख लगी है।”
अकड़कर चला गया नालायक। माहौल उस एरिया का खराब हो गया था। धन्नासेठ बनता है। अय्यासी में फूंक देता होगा नोटों की गड्डियां। दस पांच ही तो मांगी थी। दे देता।
देखने वालों ने देखा की आज अमीरी और गरीबी की टक्कर हो गई। जीत गई अमीरी। गरीबी सिर झुकाकर आगे की तरफ चल दी।
जिन लोगों ने देखा। सब लोग तरस खा गए। पेट के लिए ही तो मांगी थी। कौन सी लिपिस्टिक क्रीम खरीदती। इन गरीब लोगों को तो पेट के सिवा दिखता ही क्या है।
नही चाहिए महल अटारी। नही चाहिए कॉपी किताब। नही चाहिए फैशन। नही चाहिए अय्यासी। सिर्फ जिंदा रहने की जद्दोजहद, दो जून को रोटी। कई साल बीत जाता है इन लोगो को मुस्कराए हुये। बुदबुदाते हुए कह रही है कि मेरा हिस्सा तो दूसरे के हाथों में भगवान ने दे दी। मांग-मांग कर खाना पड़ता है।
उस भिखारिन की निगाह अगले व्यक्ति पर पड़ी। यह व्यक्ति सज्जन दिखा। नर्म स्वभाव का दिखा। कटोरा जैसे आगे बढ़ाया। जेब से निकाल कर उस व्यक्ति ने पांच सौ की नोट दे कर चला गया।
लोगों ने उस युवक की प्रशंसा कि कितना अच्छा है। कठोर नही है। ममता रूपी मन है। कितना भोला है। सब लोगों ने भगवान से प्रार्थना की इस आदमी को बड़ा बना देना। वह भिखारिन कई दिनों के बाद आज मुस्कराई कि आज पेटभर खाना हम दोनों खा लेंगे।
— जयचन्द प्रजापति ‘जय’