ग़ज़ल
जिनके मन में भय आशंका छल या द्वंद नही होता
दुनिया के करने से उनका रस्ता बंद नही होता
चाहे झूठे इल्ज़ामों की जितनी कालिख पोतें लोग
लेकिन सच का तेज कभी फ़ीका या मंद नही होता
नकली फूल लुभा तो सकते हैं रंगो बू से लेकिन
उनके भीतर नैसर्गिकता का मकरंद नही होता
प्रेम दया करुणा के रस में पगकर पूरा होता है
केवल शिल्प सजा देने से पूरा छंद नही होता
आलौकिकता जैसा भाव जगाती है अन्तर्मन में
भौतिकता के साए में वैसा आनंद नही होता
बंसल इज़्जत बाकी रहती है कब ऐसे इंसां की
अपने वादे और समय का जो पाबंद नही होता
— सतीश बंसल