जिन्दगी को ख़त (गीत)
मैं अपनी जिंदगी को ख़त लिख रही हूँ,
जो गुज़रे वो लमहें बयां कर रही हूँ।
जिया है जिसे हँसते-खेलते,
न ही फिकर थी, बस थे मचलते।
मैं अपने बचपन का सुकून लिख रही हूँ,
नहीं लौटेगा, वो गम लिख रही हूँ।
मैं अपनी जिंदगी को ख़त लिख रही हूँ,
जो गुज़रे वो लमहें बयां कर रही हूँ।
देखा है चाँद-तारे गगन में,
वे गर्मी की रातें, उन्हें लेटे-लेटे।
मैं अपनी रातों का सपन लिख रही हूँ,
जो रह गए अधूरे, वो ग़म लिख रही हूँ।
मैं अपनी जिंदगी को ख़त लिख रही हूँ,
जो गुज़रे वो लमहें बयां कर रही हूँ।
दिल में बसे वो सावन के झूले,
वो कजरी की रातें, सखियों के रेले।
मैं अपनी माँ की लोरी लिख रही हूँ,
नहीं देगी सुनाई, वो ग़म लिख रही हूँ।
मैं अपनी जिंदगी को ख़त लिख रही हूँ,
जो गुज़रे वो लमहें बयां कर रही हूँ।
न हो आँखें नम कभी ग़म से,
गुजरे हरेक पल हमेशा खुशी से।
‘अन्वी’ सब लबों पर खुशी लिख रही है,
कभी ग़म न आए, ये दुआ लिख रही है।
— डाॅ अनीता पंडा ‘अन्वी’