गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

अपने  अरमानों  की   मैयत  ढूँढ रहे हैं भैयाजी। 

लुटी  हुई   बेनाम  सल्तनत, ढूँढ रहे हैं भैयाजी।

जब प्रधानमंत्री को अपनी उंगली पर नचवाते थे,

बिन ताक़त वाली वह ताक़त ढूँढ रहे हैं भैयाजी।

बहुमत के बिन भी सत्ता के समीकरण सध जाते थे, 

उन्हीं दिनों  की वही सियासत ढूँढ रहे हैं भैयाजी।

भारत को पूरी दुनिया में जिसने इज़्ज़त दिलवाई,

उसकी  डिग्री और  लियाक़त ढूँढ रहे हैं भैयाजी। 

जिसके कह देने भर से दीवाली दो-दो बार मनी,

उसमें   कोई  खोटी  आदत   ढूँढ रहे हैं भैयाजी। 

कुछ कहने पर आते हैं तो जाने क्या कह जाते हैं,

ख़ुद ही अपने  लिए फ़ज़ीहत ढूँढ रहे है भैयाजी। 

‘राहगीर’ कुछ समझ नहीं है राजनीति के मसलों की, 

नई   दोस्ती, नई   अदावत     ढूँढ रहे हैं भैयाजी। 

— बृज राज किशोर ‘राहगीर’ 

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)