कहानी – मान-अपमान
” पानी पीना छानकर, अतिथि बनना जानकर !” बचपन में कही मां की यह बात उम्र पचपन में मुटरा बाबू पर ही लागू हो जाएगी उसने कभी सोचा नहीं था । टैगोर हिल रांची, नाम उन्होंने भी सुन रखा था । परन्तु कभी वहां गये नहीं थे । अंडाकार पत्थर का विशालकाय पहाड़ जैसा रूप ! इस पर चढ़ो तो सामने चार किलोमीटर दूर स्थित इसी तरह इसी आकार का एक दूसरा पहाड़ दिखता था । कहा जाता है, उस जमाने में ढोल मांदर की ताल पर जब कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम यहां होता था, तब दूसरे पहाड़ पर बैठ कर लोग इसे देखा और सुना करते थे । यह आसमान के नीचे का एक खुला अखड़ा हुआ करता था । जहां सरहुल की जनजातीय नृत्य और करम- जवा की नाच बहुत चर्चित हुआ करता था ।
मुटरा बाबू उसी टैगोर हिल कार्यक्रम स्थल पर समय पर पहुंच गये थे । यह एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था । जहां भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज सेवा से जुड़े लोगों आमंत्रित किए गए थे । मुटरा बाबू भी उसी में एक थे । पहुंचने की सूचना भी उन्होंने मुख्य आयोजन कर्ता को फोन पर दे दी थी ” जी, मैं मुटरा बाबू बोल रहा हूं, मैं आपके कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गया हूं ..!”
” जी, बहुत अच्छा श्री मान, मैं भी पहुंच रहा हूं, रास्ते पर हूं ..!” उधर से कहा गया था ।
आदतन मुटरा बाबू खड़े-खड़े आयोजन स्थल के इर्द-गिर्द घूम घूम कर चकोर पहाड़ से जुड़े रमणीय दृश्य और कलाकृतियों को अपनी मोबाइल पर कैद करने लगे थे । कभी सेल्फी पोज में तो कभी दार्शनिक अंदाज में !
एक खाश बात और भी थी । मुख्य आयोजन कर्ता और मुटरा बाबू दोनों कभी आमने-सामने नहीं मिले थे । फेसबुक ने ही पहले दोनों को मिलाया और फेसबुक से ही अभी तक दोनों एक दूसरे को जान समझ रहे थे । मुटरा बाबू एक कथाकार है और झारखंड से ही है यह उसे पता था । और यह एक समाजिक संगठन चलाता है,यह मुटरा बाबू जानते थे । हांलांकि समाजिक संगठनों के कार्यक्रमों में भाग लेने और जाने से मुटरा बाबू हमेशा से बचते रहे थे । कभी किसी कार्यक्रम में गये भी तो खुद को एडजस्ट नहीं कर पाते थे । पता नहीं ऐसे कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनने को लोग कैसे सहज तैयार हो जाते हैं । ऐसे मौके पर जब वो खुद को टटोलने लगते तो अंदर से असहज हो उठते थे । चूंकि यह गृह प्रांत की बात थी,। सहजता से मान गये थे ।
मुख्य आयोजन कर्ता प्रभाकर ने पिछले साल भी अपने कार्यक्रम में आने के लिए उन पर काफी जोर दिया था । लेकिन मुटरा बाबू ने गुरा (फोड़ा) का बहाना कर आने में असमर्थता जता दी थी । लेकिन इस बार प्रभाकर नहा धोकर मुटरा बाबू के पीछे पड़ गया था ” दादा, आपको आना ही होगा, समझिए यह आप ही का कार्यक्रम है, सब कुछ झारखंडी स्मिता से जुड़ा हुआ है..!” उसने जोर देकर कहा था ।
कार्यक्रम में मुटरा बाबू को सम्मानित करने संबंधी पोस्ट भी उसने सोशल मीडिया, फेसबुक पर शेयर कर दिया था । मुटरा बाबू को हर हालत में जाना ही था ।
प्रेम हो तो आदमी पैदल भी कहीं भी पहुंच जाता है । प्रेम ही तो था जब गज की पुकार सुन कृष्ण उसकी रक्षा करने नंगें पांव कोनहारा घाट सोनपुर पहुंच गये थे । मुटरा बाबू भी प्रभाकर का प्रेम समझ ही उस उम्र में भी बाइक से एक सौ चालीस किलोमीटर चल कर टैगोर हिल पहुंच गये थे । वरना पुस की ऐसी ठंड में भला इतना दूरी कौन तय करना चाहेगा ।
एक बार उन्होंने भी सोचा ठंड का बहाना बना दे । ऐसा मन में ख्याल भी आया । लेकिन तभी शाम को फिर प्रभाकर का फोन आ गया “ मुटरा दा , आप आ रहे है न, मैंने साथियों के बीच बड़ी जोर शोर से आपका नाम प्रचारित कर रखा है, इस छोटे भाई की लाज रखना, जग हंसाई न करा देना …!”
निमंत्रण में नीयत साफ हो तो आदमी नासा में भी पहुंच जाते हैं । मुटरा बाबू को तो अपने ही राज्य की राजधानी रांची पहुंचना था ।
उन्होंने स्पष्ट कर दिया, कहा ” समय पर मै पहुंच जाऊंगा भाई..! आप चिंता ना करें ..!”
रात को सोये सोये अकस्मात मुटरा बाबू को पंद्रह साल पहले की एक वाकया याद आ गया । डॉक्टर भीमराव आंबेडकर फेलोशिप सम्मान के लिए उनको दिल्ली बुलावा था । दो दिवसीय राष्ट्रीय वार्षिक सम्मेलन था । समाजिक कार्यों में योगदान और समाजिक बदलाव में विशेष योगदान देने के एवज में उन्हें ” डॉक्टर भीमराव आंबेडकर फेलोशिप सम्मान ” से सम्मानित करने हेतु निमंत्रण पत्र मिला था । शुरू में मुटरा बाबू जाने को तैयार नहीं थे। इसके पीछे की वजह थी कार्यक्रम में पहुंचने की सहमति के साथ ” पांच सौ रुपए” भी भेजने थे । पैसे देकर यह ” सम्मान पत्र” खरीदने जैसा लगा था उनको, और यह उन्हें कतई मंजूर नहीं था । इन्हीं कारणों से ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होने से मुटरा बाबू का मन हमेशा कतराता रहा है ।
तब उस दौर के युवा कथाकार जसीम अख्तर ने मामले को समझते हुए कहा ” बात यहां पैसे की नहीं है, महत्व उस मंच की है जहां दूर-दूर से लोग पहुंचेंगे । एक नया अनुभव एक नया नजरिया मिलेगा देखने-समझने को , जो किसी नये रचनाकार के लिए बेहद फायदेमंद होता है, आपको जाना चाहिए..!”
” ठीक है,आप भी मेरे साथ चल रहे है ।”
बाद में उनके साथ आज के चर्चित युवा कवि शेखर महतो भी शामिल हो गया था ।
दिल्ली का ताल कटोरा स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था । दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित चीफ गेस्ट बनी हुई थी । पहले दिन का कार्यक्रम शांतिपूर्वक चला । दूसरे दिन दोपहर तक सब कुछ ठीक था। लेकिन जैसे ही सम्मान पत्र वितरण समारोह शुरू हुआ, लोग सभी अपनी औकात में आ गए, सम्मान पत्र हथियाने की जैसे होड़ सी लग गई। पहले कौन, पहले कौन आयोजन कर्ता मूक दर्शक बन गए ! एक समय ऐसा भी आया जब लोग नाम पुकारे वगैर मंच पर पहुंचने लगे और सम्मान पत्र बिना नाम लिखे ही ” नाम पता लिख लेना ” कह दिये जाने लगे ।
” इस तरह मैं नहीं जाऊंगा, लोग जानेंगे ही नहीं कि कहां से आया हूं , क्या नाम है, किस काम से यह सम्मान पत्र दिया जा रहा है, तो इतनी दूर से आने का क्या फायदा. . !”
जसीम अख्तर को भी अच्छा नहीं लग रहा था । शेखर महतो चुप था ।
” लेना होगा तो इसी तरह जाकर लेना होगा ..!” आखिर में जसीम अख्तर ने कहा ।
” तो चलो, तीनों एक एक भोजपत्र लेकर आते हैं..!” मुटरा बाबू व्यंग्य से मुस्कुरा उठे थे ।
” पर हम कैसे ? यह तो आपको मिलना है ..?” शेखर ने कहना चाहा था।
खैर, भोजपत्र अर्थात सम्मान पत्र लेकर वे तीनों उस जगह पहुंचे, जहां नहीं पहुंचते तो ही अच्छा था। खुले मैदान में खाने की व्यवस्था थी । कतार में लग कर ! पर खाने के नाम पर कुत्ते बिल्ली का खेल चल रहा था । खाने के नाम पर ऐसे लड़ रहे थे जैसे आवारा कुतों के झूंड मलबे के ढेर पर लड़ते हैं । एक पल के लिए मुटरा बाबू को ऐसा लगा कि भूखे नंगों के बीच खाने पहुंच गए हैं । जहां खाने को लेकर पहले से वहां जंग छिड़ी हुई है । कोई प्लेट उठा कर उधर दौड़ पड रहा है जिधर भोजन रखा हुआ था तो कोई किसी के हाथ से ही प्लेट छीन ले रहा था । प्लेट हाथ में आ जाने का मतलब ही भोजन का मिलना पक्का था । इस कारण भी वहां पहले से ही धकम – धकी चल रही थी । यह देख मुटरा बाबू का बागी मन सीधे सीधे बगावत पर उतारू हो गया था । उन्होंने कहा था ” कुतों जैसा खाना हरगिज पसंद नहीं है । चलो बाहर चलते हैं। !” और वे तीनों बाहर निकल आए थे ।
आहत मन लिए दिल्ली से वे तीनों घर लौटे। मुटरा बाबू ने उस पर एक कथा रिपोर्ट ताज लिख डाली ” आंबेडकर फेलोशिप का श्राद्ध भोज ” और महुआ त्रैमासिक पत्रिका में छपने भेज दिया । प्रकाशित अंक की प्रति दिल्ली आर्गनाइजर मोहनलाल सुमनाक्षर को भेज दी ” आपने तो हमें बदनाम कर दिया ” उधर से प्रतिक्रिया आई ।
” दिल्ली पहुंचे सभी सम्मानित सदस्यों को आपने क्या कम अपमान किया ? सम्मान पत्र को भोजपत्र की तरह बांटे। इसी तरह सम्मानित किया जाता है । खाने के दौरान सबको कुतों की तरह लड़ा दिया । यही देखने के लिए बुलाया गया था हमें ” मुटरा बाबू का जवाब भी पत्थर मारने जैसा था ।
रांची टैगोर हिल वाला कार्यक्रम उससे भिन्न नहीं था । यहां भी जातिआता की पूंछ पकड़े सभी सभा स्थल पर पहुंचे हुए थे । एक तो कार्यक्रम देर से शुरू होने के कारण मुटरा बाबू का मन पहले से ही खिन था । ऊपर से यह सब देखना, उन्हें असहज कर रहा था । फिर भी रूके हुए थे । एक बजे शुरू होने वाला कार्यक्रम, तीन बजे शुरू हुआ । वह धीरे धीरे सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर पहुंचे । देखा काफी संख्या में लोग जगह ले चुके थे । कार्यक्रम स्थल की दांई तरफ कोने में रामदयाल मुंडा की एक भव्य तस्वीर लगी हुई थी । ठीक उसके नीचे लिखा था ” जे नाची सो बांची ”
मुटरा बाबू ने हाथ जोड़कर उस तस्वीर को नमन किया और एक खाली जगह देख खाली कुर्सी पर बैठ गये । तभी प्रभाकर को ऊपर आते देखा । वह नेताओं वाली गेटअप में था । मेकअप में ही शायद इतना जास्ती समय लगा था उसका । मंच पर पहुंचते ही वह एक मजे हुए नेता की तरह माइक पकड़ी उसने और अतिथियों को लगा आमंत्रित करने । एक एक कर सभी अतिथि मंच पर पहुंचने लगे । उनमें अधिकांश उनके अपनी जात बिरादरी के ही लोग थे । यह देख प्रभाकर का जोश बढ़ता गया । और कार्यक्रम में जातिये रंग भी चढ़ता गया । अभी तक मुटरा बाबू का नाम एक बार भी नहीं लिया था उसने । लगा उन्हें सबसे अंत में विशेष अतिथि के तौर पर बुलाया जाएगा ” अब आपके बीच में मैं आमंत्रित करता हूं आज के विशेष अतिथि…!” जैसे शब्द सुनने को मुटरा बाबू के कान खड़े थे ।
और कार्यक्रम के अंत तक उनका कान खड़े के खड़े रह गये एक बार भी नहीं उनका नाम नहीं लिया गया । न पुकारा गया । अपमान भावू उनके गले अंत तक धंसता जा रहा था। और वह समझ नहीं पा रहे थे कि अब रूकना है या उठ कर चल देना है । मुंडाओं की उस महफ़िल में बुला कर बहुत शातिर तरीके से उनका सर मुड़ा गया था । उन्हें अपमानित किया गया था । वह आहत थे । मर्माहत थे । बार-बार वो रामदयाल मुंडा की तस्वीर को देख रहे थे और उनके कानों में गूंज रही थी “ जे नाची सो बांची “ पर उन्हीं के कार्यक्रम में बुला कर उनको छला गया था । खाने का न्योता दिया गया और खाने के आगे से पतर ही उठा लिया गया था । वो घोर अपमानित महसूस करने लगे थे । बाद में सूत्रों से उन्हें पता चला। उनको आमंत्रित करने से प्रभाकर और उसके संगठन के प्रति विवाद काफी बढ़ गया था। कुछेक ने संगठन छोड़ देने तक की धमकी दे डाली थी । एक ने मुटरा बाबू के विरोध में यहां तक कह डाला ” भले यह बहुत बड़े साहित्यकार-कथाकार है। लेकिन अपने समुदाय को ST में शामिल करने के मामले में सबसे ज्यादा यही मुखर है । लतियाने के मामले में उन्होंने मंत्री मुंडा जी तक को नहीं छोड़ा है और आप उसी को विशिष्ट अतिथि बना मंच में बुलाने चले है । संगठन को अपनी राजनीतिक सीढ़ी बनाने की जो सोच है तुम्हारी, सब धरी की धरी रह जाएगी ..!”
” अब हमें क्या करना चाहिए ? कार्यक्रम में वो पहुंच चुके है । न बुलाना उनका घोर अपमान होगा ..!”
” होने दो अपमान, वह कौन आपन जाति बिरादरी का है । बैठा है-बैठा रहे , उब कर अपने आप उठ कर चला जायेगा..!”
और प्रभाकर मुंडा ने अपना मुंह बंद कर लिया था । कार्यक्रम समाप्ति के पूर्व एक बार व्यथित भाव से मुटरा बाबू ने मंच की ओर देखा फिर एक झटके से उठ खड़े हुए, बैग उठाए और सीढियों की तरफ कदम बढ़ा दिए । मां की कही बात एक बार फिर उनके कानों में गूंजने लगी थी “ पानी पीना छानकर और अतिथि बनना जानकर ..!”
— श्यामल बिहारी महतो