चलती का नाम गाड़ी
गोलू, भोलू और सोनू तीनों को नौकरी मिली तो पूरे गांव ने राहत की सांस ली। उस दिन सबने मंदिर में विशेष पूजा अर्चना की। भगवान को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें गांव से बाहर भेजने का इंतज़ाम कर दिया है। कुछ लोगों को शंका थी कि यह खुशी कुछ दिनों की ही होकर न रह जाए। एक नंबर के निकम्मे और मस्तीखोर ये तीनों दोस्त वापिस गांव लौटकर नहीं आ जाएं। पूजा पाठ इसके लिए भी हो रहा था। कोई नहीं चाहता था कि वे तीनों चरित्र दोबारा गांव में आकर अपनी शक्ल दिखाएं। नौकरी कहां लगी है? कितनी पगार मिलेगी ? कोई जानना ही नहीं चाहता था। उनका जाना ही सबकी खुशी का कारण बना हुआ था। दसवीं फेल तीन लफंगों को नौकरी मिली कैसे और कहां ? इस बारे में अभी कोई भी नहीं सोच रहा था।
सोनू, भोलू और गोलू गांव से तो निकल गए थे नौकरी करने पर नौकरी का कोई पता ठिकाना नहीं था। ये तो वैसा ही एक झूठ था जैसा वो अक्सर बोलते रहते थे। गांव से अगर इस बार वो तीनों नहीं निकलते तो गांव वाले उन्हे उठाकर बाहर फेंक देते बस यही कारण था कि एक मीठा झूठ बोल कर तीनों गांव छोड़कर चले आए थे। जो थोड़े बहुत पैसे साथ में लाए थे उनसे एक पुराने गेस्ट हाउस में छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया था। दिन भर काम की तलाश में तीनों भटकते और शाम को जो मिलता खाकर सो जाते। कई दिन भटकने पर एक बड़े से शोरूम में सेल्समैन की नौकरी मिल गई। नौकरी पसंद की तो नहीं थी लेकिन दूसरा कोई विकल्प नहीं था इसलिए बिना कुछ सोचे तीनों ने शोरूम पर बैठना शुरू कर दिया।
कहते हैं ज़िंदगी में एक बार ही सही अच्छा वक्त आता ज़रूर है। शायद उन तीनों मस्तीखोर दोस्तों का भी आ गया था। एक नंबर के बातूनी कस्टमर को बातों बातों में पटा लेते। शोरूम की सेल दोगुनी हो गई थी। युवतियों की तो पसंदीदा जगह बन गया था वो शोरूम। खुलने से लेकर बंद होने तक मजमा लगा रहता। आस पास की दुकान वाले जलन करने लगे थे। शोरूम की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी। खुश होकर मालिक ने छह महीने में ही बोनस दे दिया था। तीनों लड़कों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। गांव में दिन भर बेकार घूमने वाले छोरे सफल सेल्समैन बन चुके थे।
बोनस के साथ ही साथ पार्टनरशिप के भी ऑफर आने लगे थे। दूसरी दुकान वाले भी अधिक तनख्वाह के साथ अपनी दुकान पर काम करने का ऑफर दे रहे थे।
तीनों दोस्त सपनों को हकीकत में जी रहे थे। उनकी सफलता की कहानी उनके गांव तक भी पहुंच गई थी।
जो लोग कभी उनकी सूरत देखना पसंद नहीं करते थे अब अपने मोबाइल में उनका नंबर सेव कर रहे थे। बच्चों को हिदायत दी जाती थी उनसे संपर्क नहीं रखने की, वो हिदायत अब गुजारिश में बदल चुकी थी। सभी चाहते थे कि वे तीनों दोस्त गांव आकर दूसरे बेरोजगार नौजवानों को प्रेरित करें और सफलता की राह दिखाएं। गांव में जाना अब मुमकिन नहीं हो पाता था पर गांव से कोई ना कोई मिलने आता ही रहता था।
गांव के मुखिया सुखी राम को उन तीनों की प्रगति और प्रसिद्धि भा नहीं रही थी। गांव के हर घर में बस उन तीनों की ही चर्चा होती। हर समस्या का समाधान उनसे ही मांगा जाता। शादी ब्याह हो या कोई दूसरा शुभ अवसर, सबसे पहले न्यौता उनको ही भेजा जाता। मुखिया के पास तो लोग आना ही भूल गए थे।
“ऐसे पद का क्या मोल जिसमें कोई प्रतिष्ठा नहीं हो। इन तीनों बंदरों को तो गांव से हमेशा के लिए भगाना ही पड़ेगा वरना मुखिया की बात कोई नहीं सुनेगा।” अपने वफादारों से मुखिया ने दिल की बात कही। सभी चापलूस योजना बनाने में जुट गए।
तीन महीने बाद तीनों दोस्त जेल में थे। इल्ज़ाम भी संगीन लगा था। शोरूम में आई एक लड़की की वीडियो बनाकर उसे ब्लैकमेल करने का। लड़की ने पुलिस में शिकायत दर्ज करके वीडियो सबूत के तौर पर सौंप दी थी। नौकरी जाने का इतना दुःख नहीं था जितना साख दांव पर लगने का था। इतने दिनों मेहनत से काम किया था तो दूसरी नौकरी ढूंढने में परेशानी नहीं आने वाली थी। नहीं भी मिली तो दुकानदारी का अनुभव तो हो ही गया था। छोटी मोटी दुकान खोलकर बैठ सकते थे। घरवाले मिलने आए तो थोड़ी राहत मिली।
“सब उस प्रधान का किया धरा है। उसे ही हज़म नहीं हो रहा था कि उससे ज्यादा पूछ किसी की हो। पुलिस वालों के पीछे लगा हुआ था कि रास्ते के कांटे साफ़ करे।” चाचा ने बताया तो जैसे खुशी से उछल पड़े तीनों। जेल से बाहर निकल आने की उतनी खुशी नहीं हुई होती जितनी इस बात से हुई थी कि घरवालों ने दोषी करार नहीं दिया था। गांव वाले भी प्रधान के ही साथ थे। कुछ तो थाने जाकर उनका कच्चा चिट्ठा भी खोल आए थे। सब जानकारी देकर आए थे कि कैसे आवारागर्दी किया करते थे तीनों, दुकान पर नौकरी मिलने से पहले। परिवार जब धक्का देता है तो समाज भी ठुकरा देता है परंतु परिवार यदि अपनाता है तो समाज को अपनाना ही पड़ता है। यही सामाजिक नियम है। परिवार, समाज की ही एक इकाई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। वही हुआ भी।
तीनों दोस्त कुछ दिन बाद ही जेल से बाहर आ गए। उन पर लगे सभी आरोप झूठे साबित हुए। दुकान के मालिक को उनसे कुछ ज्यादा ही आत्मीयता हो गई थी इसलिए अपने वकील को उनका केस सौंप दिया। साथ में यह भी कहा,”मेरी और मेरे बिजनेस की साख दांव पर लगी हुई है। ये तीनों निर्दोष हैं और निर्दोष ही साबित होने चाहिए।”
गांव के कुछ दबंगों को पकड़ लिया और प्रधान की सारी करतूतें उनके मुंह से उगलवा ली। प्रधान खाली अपना फायदा देखता था लेकिन यहां तो बिना इंटरव्यू के सेल्समैन की नौकरी मिल रही थी। गांव भी पास में ही था। रोज़ घर से आ जा सकते थे। दिन भर अफरा तफरी करने से बेहतर था कुछ पैसे हाथ में आ रहे थे। जेल से बाहर आकर तो गज़ब की लोकप्रियता मिली थी तीनों दोस्तों को। दुकान के मालिक ने एक नया शोरूम खोलकर उन तीनों को सौंप दिया था। सीधे पार्टनर बन गए थे। इस घटना के बाद प्रधान भी समझ गया था कि राज इन तीनों का ही है। जैसे चाहे गांव वालों को अपने इशारे पर नचा सकते हैं। इनके खिलाफ़ एक शब्द भी बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है। गांव तरक्की कर रहा था। गांव के छोरे उन तीनों को अपना आदर्श मानने लगे थे। सबके सब कमाने की सोचने लगे थे। सब एक बात पर सहमत थे कि चलती का नाम गाड़ी है।
— अर्चना त्यागी