कविता

तुम सरताज मत बन जाना”

ताउम्र तुम मुझे प्रेमिका ही बनाए रखना

तुम बेइन्तेहां चाहत बरसाने वाले

प्रेमी ही बनें रहना

मर्द बनने की कोशिश में

मुझे औरत मत बना देना

ये ज़िंदगी हसीन है हसीन ही रखना

चुटकी सिंदूर भर मांग में मेरी

दमनकारी नीतियों का

लाइसेंस मत ले लेना 

पोषे जाते हैं प्रेमिकाओं के हर ख़्वाब

पत्नियों के भाल पर लिखी जाती है

प्रताड़नाओं की परिभाषा 

क्यूं ज़रूरी है सात फेरों का ढकोसला

रस्मों रिवाज़ो की आड़ में तुम

प्रीत की बलि चढ़ा न देना

मिलते रहेंगे रोज़ ऐसे ही

शिव मंदिर के पीछे 

इंतज़ार में बेहद आनंद है

कितनी खास हूॅं आज मैं तुम्हारे लिए

परिणय सूत्र में बाॅंधकर कल को

घर की मुर्गी दाल बराबर मत बना देना

फिर भी..

जिस दिन अर्धांगिनी के सही मायने

तुम्हें समझ में आए

उस दिन डोली लेकर आ जाना 

मैं प्रेमिका से पत्नी बनने बेकल हो जाऊॅंगी

दोनों मिलकर रचेंगे आलोक अपना ऐसा

न तुम सरताज होंगे, न मैं पैरों की जूती 

जिसमें समान हक से सजा शामियाना होगा।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर