पुस्तक समीक्षा : प्रेम कितने दोषों का निवारण है
बिहार में जन्मी प्रियंका ओम बहुत कम लिखने के बावजूद एक प्रतिष्ठित लेखिका हैं, वे आज के नारीवादी फैशन से इतर औरत की आजादी, उसकी अस्मिता के साथ संतुलन की पक्षधर लेखिका हैं। “वो अजीब लड़की” कहानी संग्रह से लेखन जगत में प्रवेश कर पहले ही सग्रह से चर्चा में आई प्रियंका को ‘कुछ ख़राब न हो जाए’ का प्रेशर अधिक अच्छा करने के लिए सचेत करता है। प्रियंका ओम द्वारा रचित उपन्यास “साज-बाज़” का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन ने किया है। इसमें कुल १२ अध्याय में कथा को समेटा गया है, हर अध्याय एक अलग कहानी की शक्ल लिए है, लेकिन हर अध्याय की कहानी एक-दूसरे को रिलेट करती है, एक-दूसरे में खूब गुंथी है।
पूरी उपन्यास कथा विदेश में अपने पति के साथ रहने वाली प्रेम में पगी देविका की है, जिसके अपने जीवन के मापदंड हैं, प्रियंका का कथन “यह कहानी स्त्रीवाद से ऊपर प्रेमवाद की कहानी है, क्योंकि एक प्रेम ही दुनिया को चलायमान रखता है।“- उनके स्त्रीवाद के मायने को स्पष्ट करते हुए उनकी लेखन-प्रक्रिया की झलक देता है।
साज-बाज़ एक ऐसा उपन्यास है जो पित्रसत्ता पर सवालिया निशान लगाता है, इसमें स्त्री-प्रेम, स्त्री-संघर्ष, नारी जीवन के विविध पक्षों को सच्चाई के साथ प्रस्तुत किया गया है। प्रियंका उपन्यास के बहाने कई सवाल खड़े करती हैं- उनके सवाल प्रेम, विदेश प्रवास, विवाह संस्था, पित्रसत्ता यहाँ तक कि स्त्रीवाद से भी हैं, स्त्रीवाद पर वे नए सिरे से विमर्श की हिमायत करती, प्रियंका दो संस्कृतियों के बीच के अंतर पर काफी मंथन करती हैं, पश्चिमी सभ्यता में वृद्धाश्रम की अवधारणा उन्हें सकारात्मक लगती है। इस उपन्यास में लेखिका कुछ वाक्यों का प्रयोग इस प्रकार करती है कि वे स्थापित मत बन जाने को आतुर हों।
उपन्यास के माध्यम से लेखिका अफ़्रीकी देश और भारत की भाषा के शब्दों के तर्जुमें से रूबरू कराती हैं, सिगरेट, शराब से महिला शरीर पर होने वाले दुष्परिणामों से परिचय भी यहाँ मिलता है, जिससे उनके साइंटिफिक रेलेवेंस को समझा जा सकता है।
उपन्यास में आधुनिक समाज का प्रेम है, प्रेम में धोखा है, पति की व्यस्त जिन्दगी है, पत्नी का एकाकीपन है, तन्हाई है, परिवारिक मसलें हैं, तो साथी ही आधुनिक जीवन शैली है, नायिका का रोमांटिसिज्म है, जीवन-साथी चुनने की आज़ादी पर भी लेखिका की कलम चली है। लेखिका के पास एक ग्रामीण समाज हैं जहाँ प्रेम-विवाह एक अजूबा है, एक आधुनिक शहरी समाज है जहाँ माता-पिता खुद सहयोगी न होकर भी प्रेम विवाह को स्वीकृति देते हैं तो एक अति आधुनिक समाज भी है जहाँ, शराब-सिगरेट एक रोमांच है।
प्रियंका नायिका की वेदना को न दर्शाकर उसे एक निर्णायक स्त्री के रूप में इस तरह प्रस्तुत करती हैं मानो तमाम महिलाओं के जीवन के स्याह पन्नों को उजागर कर रही हों।
प्रियंका अपने लेखन में जो वक्तव्य प्रयोग करती हैं वे एक उक्ति की तरह हो जाते हैं, वे एक सफल किस्सागो भी हैं, वे जानती हैं कि कब कहाँ-कितना छोंका लगाना है, किस्सों में कितना भाषाई नमक बुरकना है। वे खुद की भाषा गढ़ती हैं, जिसमें उर्दू, अरबी, फारसी, भोजपुरी, अफ़्रीकी शब्दों की भरमार है, यह उनके लेखन की खूबसूरती भी है, सफलता भी। उपन्यास की भाषा-शैली पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि लेखिका के पास कहन का एक सलीका है, संवाद-शैली लेखिका की प्रगतिशीलता को प्रकट करती है, लेखिका प्रत्येक अध्याय में उसके पात्रों तथा उनके व्यक्तित्व के अनुसार ही भाषा का चयन करती हैं, आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग भी यहाँ है। प्रियंका ने उपन्यास के लिए कोई योजना बनाकर विशेष शिल्प नहीं अपनाया। उनकी कथा कहने की शैली इतनी सरल और सहज है कि उनके पात्र बड़े ही सहज-सरल शब्दों में संवाद करते हैं। लेखिका हर घटना का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं, वाक्य विन्यास एकदम सहज है और संवाद कथा की मांग के हिसाब से ही प्रयुक्त किये गए हैं, प्रियंका के लेखन के आधार पर उन्हें इस राह तलाशती और राह बनाती लेखिका कहना अधिक न्यायोचित होगा। यह बात उनके उपन्यास “साज-बाज़” को पढ़कर भी पुष्ट होती है।
— सन्दीप तोमर
पुस्तक का नाम: साज-बाज़
लेखक: प्रियंका ओम
प्रकाशन वर्ष: 2024
मूल्य: 300 रुपए
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड