कविता

साथ न कुछ जाएगा

हे मानव कुछ यूं भी कर ले
धन दौलत संपत्ति समेट ले,
ईमानदारी बेइमानी कर ले
सोने चांदी के बिस्तर पर सो ले।
ईर्ष्या द्वैष निंदा तू कर ले
नफ़रत की तू खेती कर ले
चाहे जितना जतन तू कर ले
पर साथ न कुछ जाएगा
सब यहीं धरा रह जाएगा।
धर्म कर्म या दान पुण्य तू कर ले
मंदिर मस्जिद चर्च बनवा लें
इंसानियत का तू ढोंग भी कर ले
चाहे किसी का गला काट ले
कर्म तू चाहे जैसा करे ले
भेंड़चाल में भी तू जी ले
कैसे भी और कुछ भी तू कर ले
पर साथ नहीं कुछ जायेगा
सब यहीं धरा रह जाएगा।
तुझे पता है इतना सब कुछ
फिर जीवित मछली निगल रहा क्यों?
ईश्वर को गुमराह कर रहा
खुद ही तू यमराज बन रहा,
समझ नहीं आता क्या तुझको,
पानी का महज बुलबुला है तू।
तेरी कुछ भी औकात नहीं है
तेरे वश की कुछ बात नहीं है
जो तू साथ ले जा पाये
फिर क्यों भ्रम को पाल रहा तू।
क्या दुनिया में लाया था
जो ले जाने की ख्वाहिश तेरी,
खाली हाथ आया था तू
और खाली हाथ ही जाएगा,
ये शरीर भी नहीं है तेरा
ये भी साथ नहीं जायेगा
साधु सन्यासी योगी तू बन जा
या दुनिया का शहंशाह बन जा
अस्तित्व तेरा मिट जाएगा,
पर साथ नहीं कुछ जायेगा
सब यहीं धरा रह जाएगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921