प्रकृति और मैं
प्रकृति का अनुभव
राजगीर की पहाडियाँ
कुछ ऊँची कुछ नीची
छवि शाली तरू
पुष्प पल्लव सेसमलंक्रत
शुशोभित हो मेरे मानस को कर रहेहैं झंकृत
वर्षा ऋतु की काली घटाएं
उनका बरसना
बारिश में धुल कर निखर कर
तरू लगे थे चमकने
पहाडियों की चोटी पर बने हुए मठ और मंदिर
विमन्डित बौद्ध स्तूप
मेरे हृदय में
शीतलता और मोद का कर रहे संचार
स्वद्रग से देखे हुए प्रकृति के मनोरम दृश्य
उड़ते हुए बादल
वन ,पाहाड़ ,पुष्प ,कुन्ड और झरने
हरियाली ही हरियाली
वह गौरव स्थान
महिमा से मंडित और विशाल
जो व्यक्ति को बना देता है
सिद्धार्थ से बोधिसत्व
इन विपुल पावन स्थान का करके अवलोकन
मेरा हृदय यंत्र , कलवेणु
नियंत्रण विहीन हो
शब्दायमान हो उठी
आकाश रज्जुमार्ग से जातीहुयी
आनंद की उमन्गों में डूबी हुयी मै
प्रकृति के समीप गुजरती रही
जंगल के मार्ग घास फूस झाडियाँ
चहुँओर पहाडो की फैली बाहें
मुझे कराती रही आभास
मानो गोद में हूँ प्रकृति के
हे प्रकृति
हे वसुन्धरा
तुम कितनी सुरम्य हो
हर पथिक को देती हो विश्राम
बाहों मे भर कर हर्ष प्रगट करती हो
विरामदायिनी प्रिया हो
आत्मीया हो
जन जन का अवलंब हो
दुख दर्द का अनुलेपन हो
रहश्य और सौरभ से परिपूर्ण
जी चाहता है
रहूँ मैं सदा तुम्हारे समीप
किंतु
जा रही हूँ
पर खुश हूँ
क्यों की
तुम साथ हो
समाहित हो चुकी हो मुझमें पूर्ण रूपेण
— मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”