समय की गति
जूते बाहर निकालकर मनीष अंदर आ गए। डाक्यूमेंट्स की फाइल मेज पर फेंककर पंखा ऑन किया। आषाढ़ की भीषण चिपचिपी गर्मी थी। पंखा रोने लगा। उन्होंने रेगुलेटर का नॉब दो-तीन दफा इधर-उधर ऐंठा। ‘सिट्..’ गति में कोई विशेष परिवर्तन न देख वे आँगन में सीढ़ी से होते हुए छत पर चढ़ गए।
किचन में पदचाप सुनकर प्रिया ठंडी शिकंजी लेकर छत पर पहुँची तो वे रेलिंग से सटे कुछ गुमसुम खड़े थे। इस उदासी से वह भलीभाँति परिचित थी। यह असफलता की उदासी है। जब से इस घर में ब्याह कर आई है तब से पचासों बार उनके चेहरे पर इसकी हुकूमत देख चुकी है। पानी का गिलास उनकी ओर बढ़ाती हुई वह बोली, “लीजिए हाथ-मुँह धो लीजिए।”
मनीष ने जैसे कुछ सुना न।
उसने एक हाथ में पानी का गिलास सम्हालकर दूसरा हाथ उनके कंधे पर रखकर कहा, “क्या हुआ जी?”
मनीष जैसे अचानक अंतरिक्ष से गिर पड़े। हड़बड़ाहट में गिलास का पानी उन्हीं के ऊपर छलक गया। क्रोध फुफकार उठा, “दिखता नहीं, कपड़े खराब कर दिए!”
प्रिया धीरे से मिमियाई, “पानी ही तो है, सूख जाएगा!”
“और शिकंजी होता तो?”
जब होता तो देखा जाता। कौन सी मेरी गलती है। प्रिया के अंतर्मन ने कहा। वह बात नहीं बढ़ाना चाहती थी। आज फिर उनका इंटरब्यू ठीक न गया। बार-बार असफलता व्यक्ति को क्रोधी बना देती है। उसने कोई जबाव न दिया।
पति के शर्ट का बटन खोलकर उसे हाथ में ले लिया। पेड़ की एक फुनगी भी न डोल रही थी। ऊष्णता से व्याकुल खग कुल सामने नीम के पेड़ पर शोर मचा रहे थे। डरते हुए उसने कहा, “चलिऐ नीचे चलें, यहाँ और गर्मी है।”
प्रत्युत्तर में मनीष उसके पीछे-पीछे नीचे डाइनिंग रूम में आ गए। घर के नाम पर दो कमरे और एक छोटे से आँगन से सटा किचन था। बच्चा अभी छह साल का था तो एक ही कमरे में उनका सोना हो जाता। बाकी एक कमरा समयानुसार डाइनिंग रूम, गेस्ट रूम इत्यादि में बदलता रहता।
जलपान के बाद जब मनीष का मस्तिष्क ठंडा हुआ तो बोले, “सॉरी यार! अत्यधिक हताशा में मैं कन्ट्रोल न कर पाया।”
प्रिया की आँखें छलछला आईं। प्यार पाकर हृदय भावनाओं को संयमित नहीं रख पाता है। मनीष ने उसे अपने सीने से सटा लिया।
“यार आज भी पूर्व की तरह साक्षात्कार मात्र छलावा था। मैं क्या करूँ? कुछ कर नहीं पाता। असफलता की सारी हताशा क्रोध बनकर तुम पर बरस पड़ती है और मैं समझ ही नहीं पाता कि क्या कर गया?”
“कोई बात नहीं, अपनों पर सब अधिकार होता है।..सुदिन यदि पत्नी देखेगी तो दुर्दिन भी उसे ही देखना पड़ेगा।”
“पापा, आप आ गए?” कमरे में प्रवेश करते ही ऋषि बोला।
“हाँ बेटा!”
पिता-पुत्र को बातचीत में छोड़कर प्रिया चाय बनाने चली गई।
“मेरी कार लाए?” अब तक मनीष जिसकी कल्पना से डर रहा था, उसने वही तीर छोड़ा।
“व..वो क्या है कि बेटे, कार अभी मिली नहीं।” किसी तरह उन्होंने सफाई दी।
“झूठ पापा, आप झूठ बोल रहे हैं। कार मिल रही थी, आपके पास पैसे नहीं थे। न पापा?”
उन्होंने सहमति में सिर हिलाया।
“पापा, अपने यहाँ बुआ क्यों नहीं आती?”
पुत्र के गूढ़ प्रश्न से वे असहज हो गए, “तुम्हारा क्या मतलब? आती तो हैं।”
“यार पापा, यह भी कोई आना है। दो-चार बार में कभी पाँच मिनट के लिए आती हैं। जबकि दोनों अंकल के यहाँ तो हफ्ते-हफ्ते भर रहती हैं।”
मनीष को कोई उत्तर न सूझ पड़ा।
पिता आदर्शवादी अध्यापक थे। तीन बेटों और दो बेटियों के पिता ने बेटियों का विवाह रिटायर्मेंट से पहले ही निपटा लिया था। मनीष तीन भाइयों में सबसे बड़े थे। वह पढ़ने में ठीक थे। पिता कहते, इसकी काबिलियत पर कोई न कोई जॉब मिल ही जाएगी। नौकरी के आरम्भ काल में ही पिता ने पुश्तैनी घर के अतिरिक्त थोड़ी दूर शहर में दो प्लॉट खरीद लिए थे।
कालांतर में छोटे भाइयों के समय माँ के दबाव में पिता की आदर्शवादिता भंग हो गई। रिटायर्मेंट के फंड से दोनों जगह मकान बनवाने के बाद शेष रुपयों को दोनों छोटों के जुगाड़ में लगा दिया। छोटे भाइयों को नौकरी मिल गई। बड़ा पंचायत सचिव जबकि छोटा परियोजना कार्यालय में बाबू। मनीष ने एम॰ ए॰ तक पढ़ाई की लेकिन उनका कहीं हिसाब न बन पाया। उनका नम्बर आते-आते पिता की सारी पूँजी खत्म।
छोटे भाइयों की नौकरी लग जाने के बाद घर में उनका रुतबा बढ़ गया। तीनों की शादी हो गई। परिवार बढ़ने से कलह शुरू हो गया। मनीष धीरे-धीरे घर में बोझ बन गए। पिता के देहावसान उपरान्त माँ
ने मनीष को पुराना पुश्तैनी मकान वंश परम्परा बनाए रखने के लिए सौंप, क्रय किए गए नए मकान दोनों छोटे बेटों को सौंप दिया। वह स्वयं छोटे बेटे के संग रहने लगीं। प्रिया ने बँटवारे पर आपत्ति जताई तो मनीष ने डाँट दिया।
धाराएँ सदा हवा की ओर ही बहती हैं। जैसे-तैसे गृहस्थी की गाड़ी धकेल रहे, बेरोजगार मनीष भला किसी को क्या दे पाते! अस्तु बहनें उनसे दूर कट गईं। विपत्ति के समय अधिकांश का मुँह मोड़ लेना, संसार-कौशल है। कहीं ये दुःखी जन मदद न माँग लें इसलिए सब इनके पचड़े से दूर ही रहते हैं।
“क्या सोच रहे हैं?” चाय की ट्रे लिए हुए प्रिया बोली।
“क्..कुछ नहीं।” मनीष जैसे सोते हुए जगे हों।
“जल्दी चाय पी लीजिए। देवर जी के यहाँ चलना है।”
“क्यों?”
“छोटे देवर के बेटे का पहला बर्थडे है।”
“हाँ, मम्मी, पापा शीघ्र चलिए। सत्यनारायण की कथा शुरू हो गई होगी। मैं आपको बुलाने ही आया था।” ऋषि भी बोल पड़ा।
सारी औरतें एक से एक मँहगी डिजाइनर साड़ियाँ व ज्वैलरी पहने थीं। भाई की पत्नियाँ तो जैसे गहनों में मिढ़ी थीं। मनीष और प्रिया के कपड़े सामान्य थे। प्रिया की विवाह के समय की साड़ी दूर से ही पुरानी दिखती थी। उसके शरीर पर कोई ढंग के आभूषण भी न थे। वह सारी औरतों से दूर एक किनारे अकेली बैठ गई।
उन दोनों को देखते ही रिश्तेदारों में कानाफूसी शुरू हो गई। स्त्रियाँ उनके कपड़े देखकर मुँह फिराकर हँसती, एक दूसरे से ठिठोली करतीं।
बड़ी बहन ने प्रिया को देखते ही व्यंग्य बाण छोड़ा, “आ गई गँवार। जैसा पति वैसी पत्नी। जब ढंग से कपड़े न थे तो नहीं आना चाहिए।”
“बिल्कुल, कौन छोटे भैया अँगरखा लेकर पाँव पर पड़े थे कि चलना ही पड़ेगा।”
“क्या करें दीदी, अम्मा को बुरा लग जाता। नहीं तो इन्हें बुलाने का किसी प्राणी का इरादा न था।”
“कपड़े-लत्ते के लिए कमाना पड़ता है, दीदी। और कमाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, अंदर काबिलियत होनी चाहिए।”
“भैया में काबिलियत भरी-पड़ी है। दो वर्ष पहले ही पी॰ सी॰ एस॰ का इंटरव्यू निकाल ले रहे थे।” छोटी बहन ने भी व्यंग्य छोड़ा।
सबकी मुँही-मुँहा देखकर मनीष का खून खौल उठा। वे कुछ बोलते लेकिन प्रिया ने इशारे से मना कर दिया। वे खून का घूँट पीकर रह गए। कितने काबिल हैं सब वे जानते हैं।
सत्यनारायण का कथा समाप्त होने के पश्चात प्रसाद वितरण होने लगा। भगवान का प्रसाद लेकर मनीष चलने लगे। तभी दूर से ही डाकिया चिल्लाया, “मनीष भैया, अपना लेटर रिसीव कर लीजिए। मैं आपके घर गया था तो पता चला आप यहाँ हैं।”
सारे रिश्तेदार हँसने लगे। भाई की पत्नी बोली, “कुछ भी हो जेठ जी ने लेटर का सिलसिला अभी नहीं तोड़ा।”
“जेठ जैसे लोगों ने ही डाक विभाग को जीवित रखा है।” दूसरे भाई की पत्नी बोली।
पावती पत्र पर हस्ताक्षर करके मनीष ने पत्र ले लिया।
“अरे! साले साहब, ज्वाइनिंग लेटर खोल के तनी हमका भी बतावा, कहाँ की कलेक्टरी मिल गई।” बड़े बहनोई ने ताना कसा।
पत्र पढ़ते ही मनीष के आँखों में सावन उमड़ आया। उन्होंने विक्षिप्तों से उस पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी।
उपस्थित लोग-बाग विस्मित हो कहने लगे, बार-बार असफलता से पगला गया है बेचारा।
दौड़कर प्रिया ने लेटर उनसे छीन लिया। क्षणभर में तमक कर बोली, ” जीजा जी आपका आशीर्वाद लग गया। ये कलेक्टर तो नहीं लेकिन डिप्टी कलेक्टर जरूर बन गए।”
प्रिया की बात सुनकर रिश्तेदारों की फौज को साँप सूँघ गया। एकाएक धामिन ने पलटी मारी।
“मैं कहती न थी कि भैया एक दिन कुछ न कुछ बनकर रहेंगे।” छोटी बहन ने पहले मुँह खोला।
“पिताजी को भी तो भैया की योग्यता पर पूरा भरोसा था।” बड़ी से भी न रहा गया।
तीनों प्राणी थोड़ी देर तक सम्बंधियों का रंग परिवर्तन देखते रहे, फिर अपने घर की ओर बढ़ गए।
— नंदन पंडित