गीत/नवगीत

तुम चाहों तो आ जाना

नई सुबह का नया द्वार मैं खोल रहा हूँ ;

तुम चाहों तो आ जाना मैं बोल रहा हूँ !

मैंने तो हर बार दर्द को, सुख – सा ही आभार दिया है।

मौसम ने बदली हो करवट,

हर क्षण को ही प्यार किया है ।

घोर निराशा को पूरे मन से छोल रहा हूँ ;

तुम चाहों तो आ जाना मैं बोल रहा हूँ !

छूकर ही पहचान हुई है

प्राणवान होती है वायु ।

प्रश्न अलग है, ज्ञान लिया क्या

ज्ञानवान होती है आयु ।

जीवित मृत्युबोध के पल को, मैं तोल रहा हूँ ;

तुम चाहों तो आ जाना, मैं बोल रहा हूँ ।

अवरोधों से डरने वाले,

डरकर ही हरदम मिटते हैं ।

आशा के प्रतिबिंब आँख में,

रखकर जो चलते, टिकते हैं ।

जीना चाहों जी लेना, मैं प्यार – प्यार में घोल रहा हूँ ;

तुम चाहों तो आ जाना,

मैं बोल रहा हूँ !

— रामस्वरूप मूंदड़ा

रामस्वरूप मूँदड़ा

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