ग़ज़ल
इश्क़ में खुद को मिटाने के लिए काफी हूँ
मैं अकेला ही ज़माने के लिए काफी हूँ
इश्क़ तो है सेज काँटों की चलें लेकिन सुन
राह के काँटे हटाने के लिए काफी हूँ
आइना हम तो बना लेंगे इसी दिल को हम
दाग़ लगते जो मिटाने के लिए काफी हूँ
कर न तू परवाह चलते संग जब हम दोनों
अब सभी को ही सताने के लिए काफी हूँ
दूरियों की बात अब तो सुन करना मत
अब ठिकाने मैं बनाने के लिए काफी हूँ
सुन बसेरा ही गया जो अब उजड़ ग़म क्या है
घर नया अब मैं बसाने के लिए काफी हूँ
महफ़िलें ही मैं सजा दूँगा सुहानी अब तो
आज अफ़साने सुनाने के लिए काफी हूँ
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’