व्यंग्य – सजीव अंगारा
आग की सामान्य प्रकृति है : जलाना।उसके समक्ष जो भी वस्तु आती है या लाई जाती है ;वह उसे जलाकर राख कर देती है।अंगारा ,चाहे उपले का हो ,कोयले का हो ,लकड़ी का अथवा किसी अन्य वस्तु का हो ; वह किसी अन्य वस्तु को जलाता ही है।अंगारे द्वारा किसी वस्तु को जलाने के सम्बंध में एक विशेष बात भी है। वह यह है कि किसी अन्य को जलाने से पहले वह स्वयं जलकर खाक हो जाता है;राख हो जाता है।
अंगारा केवल उपले,लकड़ी,कोयले आदि निर्जीव वस्तु का ही नहीं होता।मनुष्य एक सचेतन, सजीव, साक्षात और साकार अंगारा है।वह चाहे जिस वस्तु को जलाए,किन्तु सबसे अधिक किसी को जलाता है ,तो भी मनुष्य ही है। दूसरे को अंगारे से जलाने का अकाट्य सिद्धांत सौ में से सौ टका यहाँ भी काम करता है कि वह जलाने से पहले स्वयं आत्माग्नि में जलकर राख हो लेता है।अब ये अलग बात है कि वह चाहे पड़ौसी हो ,जो अपने पड़ौसी से जलता है ; कोई नेता हो जो अपने प्रतिद्वंद्वी नेता है जलता है ,कोई कर्मचारी या अधिकारी हो जो अपने निकटस्थ कर्मचारी या अधिकारी से जलता है, कोई दुकानदार हो जो अपने जैसे दुकानदार से जलता है; व्यापारी हो जो अन्य व्यापारी से जलता है; कोई देश हो जो पड़ौसी देश से जलता है ,कोई मित्र हो जो अपने ही मित्र से जलता है; कोई रिश्तेदार हो जो अपने रिश्तेदार से जलता है।जलने का पात्र कोई भी और कहीं भी हो सकता है। जब कोई किसी से जलता है ; तो यही कहा जाता है कि अमुक अमुक से जलता है।
इस जलने के अनेक कारण हो सकते हैं।धन,पद,सत्ता,उन्नति,यश
आदि अनेक उत्प्रेरक कारक हैं,जो किसी को जलाने में सहायक सिद्ध होते हैं।कभी – कभी बिना कारण भी लोग दूसरों से जलते हैं।आनन्द की बात ये है कि जलने वाला अपना ही खून जलाकर राख और कोयला बनाता है। वह अपने किसी प्रतिद्वंद्वी का बाल भी बाँका नहीं कर पाता। इसके बावजूद वह जले जा रहा है ,रात-दिन जले जा रहा है।
जिसे देखकर या लक्ष्य करके एक
‘सुपात्र व्यक्ति’ अपने तन और मन को अंगारा बनाता है,उस तक तो कभी- कभी इस बात की हल्की सी लपट भी स्पर्श नहीं कर पाती कि कोई उससे जल रहा है। इसीलिए यह कहावत बनी है कि ‘ जलने वाले जला करें ,किस्मत हमारे साथ है।’
कहावत यह भी है कि ‘हाथी अपने रास्ते पर चलते चले जाते हैं और कुत्ते भौंकते रह जाते है।’ देश और समाज में ऊपर से नीचे तक ‘जलना’ एक अनिवार्य प्रक्रिया है।इससे नेता,मंत्री,अधिकारी,सामान्य जन कोई भी अछूता नहीं है।थोड़ी परिष्कृत हिंदी में इसी ‘ज्वलन भाव’ को ईर्ष्या भी कहा जाता है। मानव मन में प्रेम,ममता, स्नेह,दया,करुणा
जैसे मनोभावों के साथ – साथ कुछ
मनोविकार भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जैसे क्रोध,घृणा,ईर्ष्या आदि।मनुष्य नहीं चाहता कि कोई उससे ऊपर हो।वह हर क्षेत्र में शीर्ष पर रहना चाहता है। किंतु चाहने भर से कोई ऊँचा नहीं बन सकता।
यह ‘जलन’ ही है कि ‘माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही’ (मैथिलीशरण गुप्त) वाली सौतेली माता ही अपनी सौतेली संतान से जलन के कारण जहर भी दे देती है।उस समय उसका मातृत्व और ममत्व क्यों मर जाता है? पड़ौसी से जलता हुआ एक पड़ौसी उसके घर में आग लगा कर उसे स्वाहा कर देता है। नेता प्रतिपक्षी नेता पर मिथ्या दोषारोपण करके उसे कारागार की हवा खाने को विवश कर देते हैं।राजीनीति की रोटियाँ ही ईर्ष्याग्नि के आवे पर सेंकी जाती रही हैं। कहीं कुछ बदला नहीं है। यह परस्पर जलने की प्रक्रिया दिनोंदिन तेज होती जा रही है।
ईर्ष्या की आग में भले ही लपटें नहीं उठतीं, भले ही प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती ,किन्तु धुँआ तो उठता ही है;जिससे सारा वातावरण विषाक्त हो जाता है।स्वयं जलकर दूसरे को कष्ट देने और हानि पहुंचाने का ‘विशेष गुण’ भले ही अमानवीय कहा जाए,किन्तु अस्तित्व में तो है ही। इससे नकारा नहीं जा सकता।सम्भव है कि ‘जलन’ का यह दुर्भाव कीड़े -मकोड़ों, पशु -पक्षियों ,जलचरों, नभचरों आदि में न हो। यदि उनमें भी यह होता तो मनुष्य न बन जाते? इसका अर्थ यह भी हुआ कि ‘जलन’ किंवा ‘ईर्ष्या’ मनुष्य का एक दानवीय अनिवार्य तत्त्व है।
आज दुनिया के मनुष्य समाज में ‘जलन’ की यह दुर्भाग्यपूर्ण आग निरंतर जंगल की आग की तरह बढ़ रही है। रूस और यूक्रेन तथा इसराइल और फिलिस्तीन के युद्ध इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।यह ‘जलन’ ही वह दावाग्नि है जो मानव को पशुता नहीं, दानवता की ओर ले जा रही है।शांति के समर्थकों को कमजोर,डरपोक और कायर समझा जाता है।बारूद के ढेर पर बैठी हुई मानवता इस ‘जलन’ की अग्नि में जलकर कब राख हो जाएगी; कहा नहीं जा सकता। निरंकुश और विपक्ष रहित शासन की मंशा के मूल में भी यही आग है।अपने को सर्वेसर्वा ,सर्वश्रेष्ठ और सबसे बुद्धिमान मानने का अहं उन्हें पतनोन्मुख कर रहा है ,जिससे निस्तारण का कोई उपाय नहीं है।
हम तो यही चाहेंगे और कहेंगे:
सर्वो भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’