गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आपकी नज़रें, नज़ारा खूब हंगामा हुआ।
और फिर कात़िल इशारा खूब हंगामा हुआ।

इश्क़ के इस खेल में कुछ भी पता चलता नहीं,
कौन जीता, कौन हारा खूब हंगामा हुआ।

गुस्ताखियाँ इक बार की सबने भुला दी पर यहाँ,
आप जब आए दुबारा खूब हंगामा हुआ।

मेल कैसे हो भला सागर, नदी का आज भी,
एक मीठी, एक खारा खूब हंगामा हुआ।

रोटियों को छोड़कर जब देश के नेता मेरे,
चर गये पशुओं का चारा खूब हंगामा हुआ।

बिन इज़ाजत चाँदनी की एक दिन हमने कभी,
चांद को छत पर उतारा खूब हंगामा हुआ।

झूठ दुनिया का यहाँ जय ओर सह पाया नहीं,
चढ़ गया गुस्से से पारा खूब हंगामा हुआ।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से