कविता

मैं मूर्तिकार

मैं मूर्तिकार,अपनी कृतियों में
भावों को संजोता हूंँ l
मिट्टी और रंगों के संगम से
नवकृति को जन्म मैं देता हूंँ l
एक दिन सोचा, कैसी होगी नवपरिणीता मेरी अपनी ?
मिट्टी रंग ले मैं बैठ गया
कूँची जो चली, तो फिर न रूकी l

नवयौवना बहुत खूबसूरत बनी ,
पर हया का पर्दा देना था,
पलकों को झुकाए नजाकत से
कूँची से उसे बनाना था l
जितनी उसकी पलकें झुकती ,
उतनी मन में वो पैठ रही l
सुंदर मृतिका की मूर्ति बनी,
पर ईश्वर की रचना रूठ गई l

जो भी कन्या मैं देखने जाऊँ,
मन को मेरे ना भाती है,
मेरे मन में यही है मूर्ति बसी,
जो बोल नहीं बस पाती है ll
हे प्रभु असीम शक्ति वाहक l
इसमें ही तुम जीवन भर दो ,
यह परम सुंदरी मेरी वधू बने
कुछ ऐसी कृपा मुझ पर कर दो l

— बृजबाला दौलतानी