ग़ज़ल
पार किनारे जा कर रिश्ते छूटे हैं।
अम्बर भीतर चढ़ कर तारे टूटे हैं।
ले लो हम से प्यार मुहोब्वत के गुलशन,
फूल गुलाबी मौलसिरी के बूटे हैं।
याद तिरी की किरचियां कैसे आ र्गइं,
जख्म दोबारा पैरों भीतर फूटे हैं।
गैरों पर क्यों एैसे दोष लगाते हो,
रहबर ने खुद अपने राही लूटे हैं।
गैरों से याराने पाना ठीक नहीं,
पत्थरों से टकरा के शीशे टूटे हैं।
उन्होनें ही सुन्दर ऋतु को लाना,
उद्यम की मर्यादा में जो जूटे हैं।
उस की ग़ज़लों का अंदाज़ निराला हैं,
बालम ने तो बहुत मुशायरे लूटे हैं।
— बलविंदर बालम