स्नेह
(१)
ज़िन्दगी का दस्तूर कुछ यूं ही गुज़र गया,
दिल की कलम ने निःस्वार्थ सब कह दिया।
भव सागर की लहरों सा मन उमड़ रहा है,
धरा की उभरती महक को समर्पित कर दिया।।
(२)
न तेरा न मेरा ये जगत कह रहा है,
फिर भी मोह के धागों से बंधा है।
प्रकृति को मनमोहक जिसने बनाया,
उसी पे सन्देह का तीखा बाण चुभा है।।
(३)
मां के भावों की गागर भरी है,
पुत्रों के स्रोत आज सूखे पड़े हैं।
बहती थी जो जल धाराएं पसीने में,
उनकी महकती खुशबू खो सी गई हैं।।
(४)
मातृभूमि के आंचल में जंग सी लगी है,
उत्तरांचली चमक कहीं खो सी गई है।
दिलों में अहम की दीवार खड़ी कर दी,
वो ममत्व की गागर अब छलकती नहीं है।।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ “सहजा”