सुख-दुःख दोनों में समभाव (समताभाव) रखें
जीवन में सुख-दुःख का चक्र तो प्रायः चलता ही रहता है, यह कोई बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस घूमते हुए चक्र के बीच में हम समभाव (समता भाव एवं सजगता) रख पाते हैं या नहीं? क्योंकि उस समय समभाव में रहना ही महत्त्वपूर्ण है, जो कि हमारे हाथ में होता है। सुख-दुःख तो जीवन में आते-जाते रहते है। इनका आना-जाना तो मनुष्य के कृत कर्मों का खेल है या यूँ कहे कि उसके पूर्व भव में बांधे हुए कर्मों की करामात। उस क्षण में यदि हम सावधान रहेगें तो आने वाले दुःख को भी सुख में परिवर्तित कर पाएगें। जाग्रत एवं सजग रहेगें तो सुख को भी दुःख में बदलने से रोक सकेगें। इसलिए जीवन में सजग होना ही सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है।
सुख-दुःख का चेहरा कैसा होता है, जानते हंै क्या? अनचाहा होना एवं मनचाहा न होना, यह दुःख है एवं इसके विपरीत सुख। इस बात में कितनी सच्चाई है कहा नहीं जा सकता। इस सच्चाई का पता यदि चल जाए तो दुःख के साथ मित्रता एवं सुख से दूरी बनाने का मन बन जाएगा।
दुःख है इसीलिए धर्म है। भौतिक एवं अध्यात्म दोनों क्षेत्रों में जितनी भी प्रगति हुई है उसमें दुःख की भागीदारी का पलड़ा हमेशा भारी ही रहने वाला है। केवल सुख ही नहीं सुख की कामना करना भी ऐसा कहर ढ़ाता है कि पूछो ही मत? इसका जीता-जागता उदाहरण है- आज की दुनिया।
सुख की आशा में संसारी जीव पैसा कमाता है, विवाह करता है, संतान पैदा करता है और परिणाम में……. सिवाय दुःख-दर्द के और क्या पाता है? भवो भव से प्राणी न तो दुःख को सही तरीके से सह पाया और न सुख को ठीक ढंग से भोग पा रहा है। दुःख का भोग नये दुःख को पैदा न करे और सुख को ठीक ढंग से भोगने का मतलब नए दुःख का जन्म न हो। भोगने की कला में सावधानी रखना अत्यन्त आवश्यक है। सुख में लीन होना एवं दुःख में दीन होना ये दोनों असावधानी के लक्षण है। यह असावधानी ही आये हुए दुःख को और अधिक मजबूत बनाने में निमित्त बनती है। वहीं दुःख में लीनता और सुख में दीनता (उदासीनता) सावधानी का प्रतीक है।
हमें यह चिन्तन करना चाहिए कि सुख-दुःख तो हमारे आमन्त्रित अतिथि (मेहमान) हंै। हम ही उन्हें आग्रह भरा निमन्त्रण देकर अपने जीवन में लाए है। घर में पधारे हुए अतिथियों में भेदभाव करना मेजबान की गरिमा को घटाता है। सुख रूपी मेहमान का स्वागत तो पलक-पावड़ें बिछाकर, हाथ जोड़कर करते हैं, वहीं दुःख रूपी मेहमान यदि घर में आ भी जाए तो हम और आप मुँह मोड़कर उससे अपनी नज़र तक घूमा लेते हैं। यह उस आने वाले अतिथि के प्रति अन्याय नहीं है तो और क्या है।
इस प्रकार आमन्त्रित दुःख से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग है कि उस दुःख को हँसते-हँसते समभाव के साथ सह लेना। ज्ञानीजन कहते हैं कि दुःख का यदि सावधानीपूर्वक स्वागत कर लेते हैं तो उसका पुनरागमन रूक जाता है। दुःख के पुनरागमन को रोकने का एक दूसरा मार्ग और भी बताया गया है और वो है प्राप्त सुखों को त्यागना। उन्हें त्यागना यदि संभव न हो पाए तो उदासीनतापूर्वक उन सुखों को स्वीकार करके भोगना।
मुनि भगवन्त कहते हैं कि दुःख को हँसते-हँसते सह लेना कदाच् संभव हो भी जाए किन्तु प्राप्त सुखों को त्यागना बड़ी वीरता का कार्य कहलाता है। नकली एवं नश्वर सुख को त्यागने से ही असली एवं अविनाशी सुख मिल सकता है।
आध्यात्मिक एवं आन्तरिक विकास क्रम में दुःख को सहर्ष स्वीकार करना एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा करता है। उसी प्रकार सुखों का सहर्ष त्याग करना इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण रोल अदा करता है। दुःखों को समभाव में रहते हुए सह लेने से धर्म प्रवास की पूर्व भूमिका निर्मित होती है, इसी के साथ सुख को त्यागने (छोड़ने) की वृत्ति-प्रवृत्ति से तो धर्म प्रवास की यात्रा में गति-प्रगति होती है।
महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि सुखों को त्यागने एवं दुःखों को सहने के संकल्प का समता भाव के साथ गहरा सम्बन्ध है। समता भाव का अभाव दुःख-सुख को ऐसा विचित्र मोड़ प्रदान करता है, जिससे अपने जीवन सागर के किनारे पर दुःखों की भरती बढ़ती जाती है। दुःख रूपी दुर्भाग्य को कोसने में तो आज पुरी दुनिया पागल है। यदि इन पागलों की जमात में हम अपना नम्बर नहीं लगवाना चाहते हैं तो इसके लिए नीतिकार इतना ही कहते हैं कि दुःख को गाली न देकर, हमें उसका स्वागत करना चाहिए। दुःख हमारी सुषुप्त (सोई हुई) शक्तियों को जगाने में निमित्त बनता है। हमें इसको आदर देना चाहिए।
— राजीव नेपालिया (माथुर)