कविता

मजदूर

 दिनभर  मोल -भाव 

सह कर मजदूरी करता ।

अपनी हथेली पर,

 अपनी किस्मत की  ,

खुद ही रेखाएं गढ़ता।

 हड्डियों को गलाकर,

 हर रोज लोहा करता। 

पेट की खातिर,

 इंसानी मंडी में हर रोज कटता।

अपने सपनों को छोड़कर ,

साइकिल के स्टैंड पर ।

वो नन्ही आंखों के लिए,

 एक ख्वाब बुनता।

देती  तो है  सरकारें गारंटी।

पर उसकी भला कौन सुनता।

हर रोज  आश्वासन और विकास से परे ।

अपनी मेहनत का थैला  उठा ।

वह जिंदगी से रोज,

नई सिरे से नई लड़ाई करता।

— प्रीति शर्मा ‘असीम’

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]