गीत/नवगीत

पर्दा

न कोई लोचा और, न कोई लफड़ा
उसका हर दांव, एक दम तगड़ा।।

कितना बड़ा, लेखाकार है वह
इतने प्राणियों का,हिसाब रखता है
कर्म के हिसाब से,फल बांटता है
कल के ऊपर, न कुछ टालता है।

परम न्यायप्रिय, है घट-घट वासी
उसके लिए न कोई,पिछड़ा-अगड़ा

जन -जन पर, उसकी दृष्टि है
उसकी ही रची हुई, सारी सृष्टि है
खुद को चाहे जितना, धोखा दे लें
मैं ही सही हूं, इस भ्रम में रह लें।

उसकी निगाहों से, कैसे बचे कोई
वह तो हर वक्त, सामने है खड़ा

इतनी सुंदर, उसने, दुनिया बनाई
भांति-भांति के, रंगों से सजाई
सबसे बड़ा तो, वही, कारीगर है
गजब की भरी है, उसमें चतुराई।

इशारों-इशारों में, वह संदेश देता
क्यों असत्य मार्ग, पर है चल पड़ा

अरबों,खरबों, जीव-जंतु बनाए
कुछ जल में कुछ, हवा में लहराए
सूरज,चांद, सितारों से जगमग
धरा पर जीवन के, साधन उपजाए

हम ही जब सब कुछ, करें प्रदूषित
लेना पड़ता उसे,फिर फैंसला कड़ा

परछाई कि माफिक, साथ हमारे
हरता रहता है , वह दुःख दर्द सारे
अक्सर कानों में, वह कहता रहता
सुनकर क्यों तू,अनसुना कर देता।

पर हम तो ठहरे, निपट अनाड़ी
मोह माया का, जो पर्दा है पड़ा

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई