बड़प्पन
रजनी जल्दी जल्दी अपना बैग संभाली और विद्यालय से बाहर निकल कर रिक्शा पर बैठ कर बोली – बस स्टैंड चलो, भैया। जल्दी करना, बस पकड़नी है।
सुबह ही रजनी के भाई का फोन आया था कि उसकी माँ की तबियत खराब है। वह अपने घर से ही कुछ कपड़े लेकर निकली थी, अपनी सासु माँ और पति निखिल को फोन पर बता दिया था कि शाम को विद्यालय से सीधे रामगढ़ चली जाएगी और दूसरे दिन लौटेगी। जिस दिन कहीं आना जाना हो, उसी दिन कुछ न कुछ काम बढ़ जाता है। आज दोपहर को अचानक जिला शिक्षा पदाधिकारी निरीक्षण दौरे पर विद्यालय चले आए, उनके आगे पीछे करने में, आवभगत करने में और निरीक्षण का कार्य निपटाने में कैसे दिन निकल गया, पता ही नहीं चला। दोपहर का खाना भी ठीक से नहीं खा पायी थी। अचानक लगा कि हलक सूख रहा है, पानी का बोतल निकाल कर कुछ पानी की घूंटें निगली, तब शांति मिली।
रिक्शा तेजी से चल पड़ा और बस स्टैंड जैसे ही पंहुचा कि वो तेजी से उतरकर भाड़ा देकर बस की तरफ दौड़ पड़ी। बस खुलने ही वाली थी, वह दौड़ कर चढ़ी पर चेहरा बूझ गया। सभी सीटें भरी थी। वो खड़ी हो गयी, सोचा कि दूसरी बस करीब चालीस मिनट बाद है, प्रतीक्षा करना उचित नहीं लगा। तभी एक आवाज आयी – आ जाईए , मैडम। यहाँ बैठ जाईए।
बहुत झिझक हो रही थी, पर दिन भर की भाग दौड़ से थका शरीर खुद ब खुद उधर बढ़ गया। वह मजदूर सी औरत, मैले कुचले , गंदे कपड़े पहने हुए थी, पर उसकी मुस्कुराहट में गजब का आत्मविश्वास था। उसके हाँथ में एक झोला था। रजनी ने उससे पूछा – कहां जा रही हो ?
” पहचाना नहीं क्या मैडम। तीन दिन पहले ही पिछले रविवार को आपके विद्यालय में जो दीवार की मरम्मत हो रही थी, वहाँ मैं ही तो मजदूर का काम कर रही थी, आप बार बार राजमिस्त्री को बतला रही थी, ऐसे ऐसे काम करना है। वैसे मुझे नया मोड़ जाना है। छोटी जगहों में प्रतिदिन मजदूरी नहीं मिलती है। रोज हजारीबाग आ जाती हूँ, शाम को वापस लौट जाती हूँ।” वह मज़दूर औरत एक सांस में बोल गयी।
रजनी को तुरंत याद आ गया कि हाँ यही तो काम कर रही थी। चरही में रजनी के बगल में बैठी औरत बस से उतर गयी, पर वह पुनः अपनी सीट एक बूढ़ी औरत को दे दी – बड़े ही प्यार से उसे अम्मा कहकर बुलायी और बैठा दी। मांडू में पुनः एक सीट खाली हुई, तब रजनी ने उसका हांथ पकड़कर खींचा और अपने बगल में बैठने को बाध्य किया। वह सिमट कर बैठ गयी और बोली – मेरे कपड़े गंदे हैं, मैडम।
” कोई बात नहीं। एक बात पूछूं। तुम दिन भर शारीरिक मेहनत करती हो, थक गयी होगी। पर फिर भी अपनी सीट दूसरों को देती रही। ऐसा क्यों ? ” रजनी ने सवाल किया।
वह बोल पड़ी – मैडम गरीब आदमी हूँ, दो छोटे बच्चे हैं। अपनी सासु माँ के भरोसे छोड़कर आती हूँ। मेरे मर्द का दो साल पहले ही इंतकाल हो गया है। इतना कमा नहीं पाती कि किसी को कुछ दान दे सकूं। बस से हजारीबाग आते जाते लोगों को ऐसे ही मदद कर दिया करती हूं, उनकी दुआएं मिल जाती हैं। बस पकड़ने के पहले रोज मंदिर जाती हूँ, वहाँ देहरी पर पड़े सबके जूते चप्पल समेट देती हूँ। जो ज्यादा गंदे होते हैं, उन्हें झाड़ दिया करती हूं। मंदिर की साफ सफाई कर देती हूं। पंडित जी बहुत आशीर्वाद देते हैं। वो हमारे लिए बहुत हैं। इस बस का कंडक्टर बहुत अच्छा आदमी है। वह भाड़ा दस रूपये ही लेता है। इसीलिए इसी बस से आया जाया करती हूं। खुशियाँ बांटने में जो खुशी मिलती है, उसका आनंद मैं बता नहीं सकती।
तबतक नया मोड़ बस पड़ाव आ चुका था, उतरते उतरते उसने नमस्ते मैडम जी बोला। उसकी मुस्कुराती आंखों से जो नूर टपक रहा था, वह रूह को गजब सा अहसास दे रहा था। एक निश्छल आकर्षण था, उसकी मुस्कुराहट में। बड़ी बड़ी खुशियों को पाने में, समेटने में हम छोटी छोटी खुशियों को नजरअंदाज कर देते हैं।
रजनी को आज एक बहुत बड़ी सीख मिली। इंसान अपनी सोच से बड़ा होता है, पैसे और ओहदे से आदमी बड़ा दिखता तो है, पर बड़प्पन दुआओं को कमाने में है। दूसरों के चेहरे पर जो मुस्कान ला दे, उससे बड़ा आत्मिक संतोष और कुछ नहीं है।
== श्याम सुन्दर मोदी