स्वास्थ्य

इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन: बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी

भारतीय चिकित्सा संगठन [इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन] का सामान्य अर्थ निकालें तो भारतीयों के स्वास्थ्य से जुड़े हितसाधक चिकित्सकों का संगठन और कदाचित बाबा रामदेव वाले प्रकरण में यह बात खुलकर सामने आई भी I परन्तु कुछ छोटे-छोटे-से प्रश्न इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन से, जिसका मैं आजीवन सदस्य भी हूँ I

  • “नेशनल लिस्ट ऑफ इसेंशियल मेडिसिन्स 2022” के अनुसार मात्र 384 दवाएं मान्य हैं, उनमें भी दो या दो से अधिक दवाओं के काम्बिनेशन की संख्या मात्र 25 मान्य की गई है, परन्तु भारत में चिकित्सकों के द्वारा प्रिस्क्राइब किए जाने के कारण मान्य दवाओं से भी अधिक दवाएं और काम्बिनेशन्स धड़ल्ले से बन और बिक रहे हैं I कोई आपत्ति नहीं I चूँकि ये अतिशेष दवाएं चिकित्सकों के कारण ही बनती-चलती और बिकती हैं, तो स्पष्ट है कि एसोसिएशन “नेशनल लिस्ट ऑफ इसेंशियल मेडिसिन्स 2022” के प्रति अपेक्षित रूप से गम्भीर नहीं है I एम्स, छत्तीसगढ़ के सेवानिवृत्त अकादमिक अधिष्ठाता और सुप्रसिद्ध फार्मेकोलॉजिस्ट डॉ. सूर्यप्रकाश धनेरिया अनेक दशकों से दवाओं के तर्कसंगत [रेशनल] उपयोग के लिए अभियान चला रहे हैं, यदि उनकी बात मान ली जाए तो निश्चित रूप से 384 इसेंशियल मेडिसिन्स से काम चल सकता है I    
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन हरेक बुखार में एंटीबायोटिक दिए जाने का विरोध करता है, जब तक कि ब्लड काउंट में संक्रमण का संकेत ना मिलें परन्तु झोला छाप तो अज्ञानी हैं, रजिस्टर्ड एलोपैथ भी ड्रग रेजिस्टेंस के खतरे को जानते हुए भी एंटीबायोटिक का जमकर उपयोग कर रहे हैं, एसोसिएशन ने इस पर भी गम्भीरता से संज्ञान नहीं लिया है I बुखार और शरीर दर्द में पेरासिटामोल ही प्रभावी काम करने में सक्षम है, परन्तु चिकित्सक नॉन स्टेरॉयडल एंटीइन्फ्लेमेटरी दवाओं [NSAID] का उपयोग करते हैं, कोई आपत्ति नहीं, जबकि उन दवाओं की घातकता और लीवर तथा किडनी पर टॉक्सिक प्रभावों के चलते उन दवाओं के बेरोकटोक उपयोग पर पूरे देश में जोरदार केम्पेन चलाया जाना चाहिए था, इसे भी आपकी बाबा रामदेव छाप जागरूकता की दरकार थी I जैसा कि आईएमए के सदस्य आरोप लगाते हैं कि आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक चिकित्सक एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से उपयोग करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट में लोकहित में तथा एंटीबायोटिक को रेजिस्टेंस से बचाने की खातिर एक याचिका क्यों नहीं लगाई गई कि यदि किसी दवा दुकानदार ने एलोपैथी के अतिरिक्त चिकित्सकों के पर्चों पर दवा दी तो उसका लाइसेंस रद्द किया जाए और ऐसा ही गैर एलोपैथी के चिकित्सकों द्वारा एंटीबायोटिक का उपयोग सख्ती से प्रतिबन्ध लगाया जाए I कौन रोक रहा है? बाबा रामदेव छाप साहस आपके पास है ही I    
  • डायबिटीज की बात करें तो आरम्भिक दौर में एक या दो दवाओं से काम चल सकता है, आवश्यकता पड़ने पर दो से अधिक दवाओं का उपयोग किया जा सकता है, परन्तु ऐसा नहीं हो रहा है, एसोसिएशन से इस विषय में आपत्ति की दरकार है I    
  • दिल्ली, लखनऊ, इन्दौर जैसे महानगरों तक के नामी गिरामी निजी अस्पतालों में आईसीयू तक में रात्रिकालीन ड्यूटी आयुर्वेद और होम्योपैथी के  स्नातक ड्यूटी करते हैं, क्योंकि वे कम वेतन में सहजता से उपलब्ध हो जाते हैं I एसोसिएशन के संज्ञान में है परन्तु कोई विरोध नहीं? रात में जब विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता सहज-सरल नहीं होती है, तब क्या यह रोगियों के साथ और एलोपैथी के स्नातकों के साथ अन्याय नहीं है? बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी I
  • मेडिकल कॉलेजों में आउट डेटेड पाठ्यक्रम दशकों से पढाया जा रहा है, जिनका वर्तमान में कोई औचित्य तथा उपयोगिता नहीं है I जैसे- फिजियोलॉजी के पूरे साल तक चलने वाले हीमेटोलाजी की प्रैक्टिकल एक्सरसाइजेज, जिनमें न्युबार्स चेंबर का उपयोग सिखाया जाता है, जबकि पूरी दुनिया में इन विधियों से रक्त की जांच की ही नहीं जाती है I एक पैरामीटर के लिए एक घंटा लगता है, जबकि ऑटो एनालाइजर से एक मिनट में पचीसों पैरामीटर्स की प्रिंटेड रिपोर्ट आ जाती है, वह भी रक्त की कुछ बूंदों मात्र से ही I बायोकेमिस्ट्री विषय में पूरे साल भर तक अधिकाँश समय मानव मूत्र का परीक्षण करवाया जाता है, जबकि चिकित्सकों की कमी तथा व्यस्तता के चलते कोई भी भारतीय स्नातक चिकित्सक अपनी क्लिनिक अथवा नौकरी के दौरान पेशाब की जांच नहीं करता है I इसके स्थान पर क्रिटिकल केयर, डिजास्टर मैनेजमेंट में मेडिकल स्टूडेंट्स की महती भूमिका सिखाई जाना चाहिए I और भी अनेक विधाएं हैं, जिनका प्रशिक्षण इस बचे हुए समय में दिया जा सकता है I इस तरह हर साल देशभर के लगभग एक लाख प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के करोड़ों घण्टों का नाश हो रहा है, एसोसिएशन ने दीर्घावधि चुप्पी क्यों साथ रखी है? सुप्रीम कोर्ट में तो क्या मीडिया में भी आपत्ति नहीं जताई गई I समसामयिक पाठ्यसामग्री को जोड़ा नहीं जा रहा है और वैज्ञानिक प्रमाणों के कारण पाश्चात्य देशों में प्रचलित वैदिक चिकित्सा विधाओं, जैसे आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, मन्त्र चिकित्सा, सूर्य किरण चिकित्सा, अग्निहोत्र चिकित्सा, आभार और क्षमा चिकित्साओं से नेशनल मेडिकल कमीशन ने दूरी बनाये रखी है, एसोसिएशन ने चुप्पी साध रखी है I
  • सन 1934 से आजतक विद्यार्थियों और शिक्षकों द्वारा उपाधि तथा पदोन्नति के लिए अनिवार्य होने के कारण लाखों शोध मेडिकल कॉलेजों में हुए हैं, एक को भी नोबेल सम्मान नहीं, एक को भी अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार नहीं, एक ने भी देश की ज्वलंत स्वास्थ्य समस्याओं के उन्मूलन, नियंत्रण में कोई योगदान नहीं दिया, उल्टे सरलता से नियंत्रित होने वाली टीबी, रेजिस्टेंस टीबी में बदल कर नागरिकों के जीवन तथा देश के करोड़ों उत्पादक दिनों का नाश कर रही है I
  • चिकित्सकों की राष्ट्रीय स्तर की एसोसिएशन के होते हुए भी देश में कुपोषण विकराल रूप लेता गया और उसे पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंहजी ने राष्ट्रीय शर्म घोषित कर दिया I आयुर्वेद के लोग स्वर्ण प्राशन और आयुर्वेदिक खीर से चमत्कार करते रहे, इण्डियन नाम के चलते कुछ पराक्रम की देश आपसे भी अपेक्षा कर रहा था, इस विषय कुछ पराक्रम तथा सहभागिता आपकी रहती तो नाम की सार्थकता सिद्ध हो पाती I  
  • अभी विगत अनेक वर्षों से नीट प्रीपीजी के रिजल्ट बड़े ही शर्मनाक आ रहे हैं, इस वर्ष माइनस 40 पर्सेंटाइल [परसेंट नहीं] अंक मिलने पर भी पीजी में सिलेक्शन हो गए हैं, यदि ऐसे चिकित्सक विशेषज्ञ बनेंगे तो देश और विदेशों में चिकित्सा शिक्षा की कितनी भद पिटेगी, आपके प्रोफेशन की प्रतिष्ठा को तहस-नहस करने वाले घटनाक्रम पर आपकी चुप्पी शर्मनाक है I
  • बतादूँ कि देश के चुनिन्दा प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को हरेक मेडिकल कॉलेज में 300 वरिष्ठ-कनिष्ठ चिकित्सा शिक्षक टर्शरी स्तर के अस्पतालों में पूरे साढ़े पांच वर्षों तक सिखाते-पढ़ाते हैं I हर कॉलेज में देशभर के 82 वरिष्ठतम चिकित्सा शिक्षक 14 प्रमुख विषयों की परीक्षा लेकर उन्हें 50% या अधिक अंक प्रदान कर उन्हें उत्तीर्ण घोषित कर एम.बी.बी.एस. की डिग्री दे देते हैं I और जब नीट प्रीपीजी में उन्हीं 14 विषयों के उसी पाठ्यक्रम के आधार पर प्रश्न पूछे जाते हैं, तो लज्जा का विषय है कि उन्हें माइनस 40 पर्सेंटाइल नम्बर तक आते हैं और वे पीजी में प्रवेश पा जाते हैं I आखिर उन्हें एम.बी.बी.एस. में पासिंग मार्क्स [50% अंक] कैसे मिले होंगे? यदि माइनस मार्किंग के कारण ऐसी स्थिति हो रही है तो इसका अर्थ यह भी हुआ कि उन्हें चार-चार आप्शन देने के बाद भी सही ट्रीटमेंट देना नहीं आने वाला है I अर्थात् चिकित्सा शिक्षा की ऐसी दुर्गति है कि नीट यूजी में 70-99 पर्सेंटाइल लाने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थी शून्य से भी नीचे चले जाते हैं I आपने बाबा रामदेव की तरफ तो नजरें इनायत की परन्तु अपने ही प्रोफेशन के महापतन पर दृष्टि ही नहीं डाली I क्यों? पहाड़ पर लगी आग से चिंतित हैं परन्तु आपके पैरों में लगी आग से अनभिज्ञ क्यों है?

थोड़ा पीछे चलते हैं, एड्स नामक रोग का आविष्कार हुआ और देखते ही देखते पूरे देश की सार्वजनिक दीवारों और अस्पतालों की दीवारों पर “एड्स का विरोध सिर्फ एक निरोध” का नारा दिखाई देने लगा I आपने विरोध नहीं किया, जबकि आपको ज्ञात था कि गर्भाधान की दृष्टि से निरोध की असफलता की दर लगभग 13% है, जबकि एड्स का वायरस शुक्राणुओं की तुलना में लगभग 650 गुना छोटा होता है और गर्भाधान की दृष्टि से शुक्राणुओं की संख्या लाखों में होना आवश्यक है, [390 लाख से कम स्पर्म होने पर गर्भाधान की सम्भावना कम हो जाती है] और उन्हें कई तरह की बाधाओं का सामना करते हुए 15 सेंटीमीटर की यात्रा करना होती है और 200 शुक्राणुओं को छोड़कर शेष सभी लाखों शुक्राणु रास्ते में ही मर जाते हैं, तब जाकर एक या दो शुक्राणु गर्भाधान के लिए लक्ष्य स्थान तक पहुँच पाते हैं, जबकि एड्स के कुछ ही वायरस संक्रमण कर सकते हैं और उन्हें कोई यात्रा नहीं करना होती है, जहां भी वायरस पहुंचेगा, वैज्ञानिक कहते हैं कि वायरस सलामत म्यूकस मेम्ब्रेन में घुस सकता है, उसे किसी भी तरह की बाधा दौड़ नहीं करना होती है, तो फिर निरोध को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया गया तो आपने कोई विरोध क्यों नहीं किया?? और मैंने सरकारी नौकरी में होते हुए भी सुस्साहस करते हुए केन्द्र सरकार को नोटिस दिया I सभी अख़बारों में छपा और दिल्ली के जनसत्ता अखबार में प्रमुखता से बड़ी न्यूज़ भी प्रकाशित हुई थी, संगठन मेरे साथ खड़ा हो सकता था I पहल तो मैंने कर ही दी थी, क्यों खडा नहीं हुआ? जब आरटीआई के माध्यम में जानना चाहा कि किस शोध के बलबूते कण्डोम का बेहद निर्ल्लज प्रचार किया जा रहा है तो 1992 से ही कण्डोम का निर्लज्ज प्रचार करने वाले नाको ने 2003 का अमेरिका की किसी निजी एजेंसी बॉडी डॉट कॉम का एक अभिलेख भेज दिया, जिसमें उत्तम क्वालिटी के कण्डोम की 10% फेलियर रेट बताई गई थी I जबकि अच्छी गुणवत्ता के लेटेक्स के कण्डोम के प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले छेदों का आकार स्पर्म से दस गुना छोटा होता है और वायरस तो स्पर्म से 650 गुना छोटा होता है I वैसे किसी भी दवा के आविष्कार के बाद उसकी प्रभावशीलता विभिन्न देशों के सन्दर्भ में परखने के लिए हमेशा देश, काल और परिस्थितियों की बात वैज्ञानिक करते हैं तो भारतीय सरकारी कण्डोम्स की गुणवत्ता को देखते हुए एसोसिएशन सरकार को सुझाव दे सकती थी कि भारतीय परिस्थितियों को देखते हुए “एड्स का विरोध सिर्फ संयम और जीवनसाथी के प्रति निष्ठा” का प्रचार किया जाना चाहिए I जबकि मेडिकल इंस्टीट्यूट ऑफ सेक्सुअल हेल्थ की संस्थापक तथा प्रसूति विशेषज्ञ JOE S McILHANEY के अनुसार एड्स के संक्रमण की दृष्टि से शिक्षित कपल्स में उच्च स्तरीय कण्डोम की फेलियर रेट 31% पाई गई I

दैनिक अखबारों के मुखपृष्ठ पर रंगीन और सुगन्धित कण्डोम के पूरे पृष्ठ के विज्ञापन छपते रहे, जबकि आप तो जानते ही थे कि योनि में दृष्टि और गंध कोशिकाएं होती ही नहीं हैं I आपको प्रश्न उठाना था कि यदि बच्चों ने कह दिया की ऐसी रंगीन और सुगन्धित चीज ला दीजिए तो अभिभावक क्या उत्तर देंगे? चिकित्सा क्षेत्र का मामला था, कहीं यह मुखमैथुन के प्रचार-प्रसार के चलते तो नहीं था, आपको विरोध करना था, लोकहित में सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था?

नाको द्वारा प्रकाशित ट्रेनिंग माड्यूल फॉर मेडिकल ऑफिसर्स में ड्राई चुम्बन को निरापद बताया, नर्सेस के माड्यूल में लिखा है कि अधिकाँश वैज्ञानिकों का मानना है कि चुम्बन में रक्त परस्पर संपर्क में रहने से संक्रमण हो सकता है और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, जो कि आम, निर्धन और ग्रामीण नागरिकों के सर्वाधिक सम्पर्क में रहते हैं, उनके ट्रेनिंग माड्यूल में लिखा है कि चुम्बन निरापद है I तीनों अभिलेख संलग्न हैं] I एसोसिएशन ने आपत्ति क्यों नहीं ली?? जबकि भारत में ही एचआईवी पॉजिटिव 38 वर्षीय सौतेले बेटे ने अपने पिता को काटा तो वह भी एचआईवी पॉजिटिव हो गया था, यानी लार ने पिता को संक्रमित कर दियाI 

डॉ. मनोहर भण्डारी