कविता

कब छोड़ोगे पीछा

तंग आ गए हैं हम लोग
तुम्हें जबरन ढोते ढोते,
पीढ़ियों से जिंदगी चल रही रोते रोते,
भाग्य के खेल में हमें उलझा दिए,
हमारे सारे सपने खुद ही पा लिए,
आज सोचते हैं हम लोग कि
चमत्कारों वाली कहानी कथाएं
सिर्फ हमें भरमाने के लिए तो नहीं है,
आस लगाए बैठे पड़े हैं पर
कोई तो शातिर बैठा है
कहीं वो हमें लूटने के लिए तो नहीं है,
पीढ़ियों से हम अपने हाल पर जी रहे
ये बात तो सोलह आने सही है,
हम तड़प रहे सुखी रोटी को
आपके आगे बह रही दूध,छाछ,दही है,
कब्जा करके मस्तिष्कों पर हमारी,
जीने भी दोगे या कर चुके मारने की तैयारी,
न सुनते हो हमारी न देते मौका बोलने का,
हम भी जगे हैं थोड़ा विचारों को तौलने का,
यह मिट्टी छोड़ो या देश छोड़ो,
भरपूर जिंदगी जीने का न हौसला तोड़ो,
कोशिश है बदल देंगे दशा और दिशा,
गुजारिश है हमारा छोड़ दो पीछा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554