कितना सलोना रुप तुम्हारा
यूंँ तो गीतकार बृजेश आनन्द राय का गीत संग्रह “कितना सलोना रूप तुम्हारा” की प्रति काफी समय से मेरे पास है। किन्तु स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण इस संग्रह के बारे में कुछ लिख पाना संभव न हो सका, जिसका अफसोस भी है, अब इसे ईश्वरीय विधान मानकर संतोष करने के सिवा कोई विकल्प भी तो नहीं है। एक दो बार प्रयास के बाद आधा अधूरा रहता रहा। अब एक बार फिर से कोशिश करता हूँ।
गीतों को संबोधित करता प्रतीत होते नामकरण “कितना सलोना रुप तुम्हारा” वाला यह संग्रह कवि के हृदय की प्रेमानुभूति और प्रकृति मिश्रित काव्य सरोवर में भिगोती प्रतीत होती है।
मेरा मानना है कि अन्य की अपेक्षा एक शिक्षक साहित्यिकार का चिंतन मूलतः अधिक गहराई में उतरकर गोते लगाता है । जिसका उदाहरण इन पंक्तियों से मिलता है
क्षमा चाहता हूँ प्रिये,
बिन पूछे तुमसे प्यार किया।
अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का सहज शब्द चित्र
तुमसे प्रशस्त मेरा जीवन पथ
तुम बने सारथी चले उम्र का रथ।
संग्रह की रचनाओं में जीवन दर्शन का बोध होता है। साथ ही बृजेश जी के अनुसार – ‘प्रेम’- कवि का सत्य होता है और कविता का भी। इतना ही नहीं वह स्वयं के साथ ही पाठकों के अंतस में विश्वास के साथ झांकने का साहस भी दिखाते हैं। तभी तो “निवेदन” में लिखते हैं कि मेरे “गीत और कविताएँ” पढ़ते हुए…हर एक ‘मन’ को वैसे ही सुकून प्राप्त होंगे, जैसे लिखते हुए मुझे प्राप्त होते रहे हैं।
अब इसे प्रेम की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या कहा जाए कि जब वे आवाहन करते हैं कि ‘क्यों न मेरी संवेदना आपकी संवेदना बन जाए? क्यों न मैं बूंँद से समुद्र हो जाऊंँ? क्यों न मैं व्यष्टिसे समिष्ट हो रहूंँ? क्यों न मैं आपके साथ आत्मसात हो जाऊंँ?’
इन पंक्तियों में प्रेम में दर्द की गहराई के दर्शन होते हैं –
जीवन दग्ध मरुस्थल में
कोई प्रेम प्यास से तड़पा होगा।
तब उसकी सूनी आंँखों से
दर्द आँसू बन बरसा होगा।।
71 गीतों/कविताओं के संग्रह में से, ‘सुमन तुम कितनी सुन्दर हो!, मैं चक्कर खाता प्रेम पथिक, जब दर्द उठता है हृदय में, पत्थर हुआ है पानी, जगह जगह बरसात हो गई, और तुम्हारी याद आई, प्रिय मुख कितना सुन्दर है!, याद आता है जब मेरा अतीत, मुख मोड़कर ओ जाने वाले, क्षमा चाहता हूँ प्रिये, सुन्दरी मत कर तू अभिमान, बस इक प्रतीक्षा हो तुम! आदि में विविध प्रेम आयामों की प्रतिध्वनियां झंकृति होती प्रतीत होती हैं।
प्रस्तुत संग्रह के गीत काव्य पाठकों को आकर्षित करने में समर्थता का बोध कराते हैं। और अंतस में जाने को उत्सुक दिखते हैं।
मेरे विचार से राय जी की लेखनी जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, उनके चिंतन का दायरा और व्यापक होता जाएगा। जिसकी अनुभूति पाठकों को आकर्षित करने में और अधिक समर्थ होगी।
आकर्षक मुखपृष्ठ वाले “कितना सलोना रुप तुम्हारा” संग्रह का प्रकाशन शब्दांकुर प्रकाशन दिल्ली से हुआ है। संग्रह के दृष्टिकोण से 113 पृष्ठीय संग्रह का मूल्य मात्र ₹200/- है। जिसे सामान्य ही कहा जाएगा।
संग्रह और बृजेश आनंद राय जी को अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ