काव्य प्रेम
कब किताबों के पनों से
प्यार हो गया
पता ही न चला।
कब अल्फाज़ो का
लफ्ज़ो से इकरार हो गया
पता ही न चला।
कब शब्दों को
मात्राओंं से नूरी इश्क़ हो गया
पता ही न चला।
कब प्रकृति का
मानव से आलिगन हो गया
पता ही न चला।
कब हिंदी की बिंदी ने
प्रेम की अनुभूति करवा दी
पता ही न चला।
— डॉ. राजीव डोगरा