शैक्षिक भ्रमण : सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के आनंदमय पल
शैक्षिक भ्रमण ज्ञान सर्जना का पुरातन फलक है तो नित नवल विधा, सीखने की अधुनातन ललक भी। हास, परिहास, उमंग, उत्साह का सरस निर्झर है तो लेखन, अभिव्यक्ति, संवाद कौशल का बौद्धिक विस्तार भी। शैक्षिक भ्रमण जीवन का वह पृष्ठ है जिस पर बच्चे अपने मनोभाव अनुभव की स्याही से दर्ज करते हैं। कक्षा कक्ष की दीवार की खिड़की से भीतर आती रचनात्मकता की मलय बयार है। शैक्षिक भ्रमण में बच्चे प्रकृति के मनमोहक आंगन में स्वयं करके सीखते हैं, एक-दूसरे से मिलकर कुछ नया रचते, गुनते और बुनते हैं जो उनके भावी जीवन पथ में सर्वदा सुवासित सुमनों की तरह खिले रहते हैं। और इस सीखने के आधार में वहां कोई दबाव या बोझ नहीं होता बल्कि खुशी, प्रसन्नता, आनंद के उल्लास उमंग में बच्चे किसी पहाड़ी झरने की तरह कर्म करते हुए परिवेश में उपलब्ध प्रकृति के उपहारों का न केवल आनंद लेते हैं बल्कि अवलोकन, अनुमान, तर्क, कल्पना, तुलना और संबंध विवेचन करते हुए नवल ज्ञान की सर्जना की ओर उन्मुख होते हैं। वास्तव में शैक्षिक भ्रमण कक्षा या विद्यालय को बाहरी दुनिया से जोड़ता है और यह बाहरी दुनिया वह दुनिया है जहां बच्चे पहुंचकर जिज्ञासा के पंख लगा कर अनंत आकाश में उड़ जाना चाहते हैं, पींठ पर शोध का आक्सीजन बांध सिंधु के रहस्य से परदा उठाना चाहते हैं। शैक्षिक भ्रमण न केवल बच्चों की मानसिक क्षुधा की पूर्ति करता है बल्कि आगे बढ़ने के तमाम रास्ते भी खोलता है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि अपने स्कूली दिनों में प्रत्येक वर्ष शैक्षिक भ्रमण करवाया जाया था। शैक्षिक भ्रमण के दौरान हम बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते, साथ में ही नाश्ता-भोजन करते, गीत गाते और वहां उपलब्ध पेड़-पौधों, जानवर, नदी-तालाब, तितली, भंवरे, चिड़ियां आदि के बारे में जानते-सीखते। ऐसे ही एक भ्रमण में मोर-मोरनी को पहली बार बिल्कुल करीब अपने पास दाना चुगते हुए, नाचते हुए देखा था। वहां मिले मोर के पंखों के रंगों को पहली बार छूकर अनुभव किया। बाद के बहुत वर्षों तक उस मोर पंख के टुकड़े हम कुछ बच्चों की किताबो में दबे रहे। मेरे स्कूल से एक शैक्षिक भ्रमण स्कूल से लगभग 3 किलोमीटर दूर दातासाईं कुटिया में नवंबर महीने में पैदल जाया करता था। खजाने की खोज खेल सभी बच्चों को बहुत भाता था। इस खेल में दो दल बनाये जाते जिसमें बच्चे अपना दलनायक चुनते। दोनों दल के साथ एक-एक शिक्षक होते थे पर वे केवल सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए ही थे। इसमें खजाने की खोजकर खजाना प्राप्तकर आपस में बंटवारा करना होता था। उस क्षेत्र में निश्चित दूरियों पर आठ-दस जगह खजाने तक पहुंचने हेतु कुछ संकेत सूत्र लिखी पर्चियां रखी होती थीं। एक पर्ची प्राप्त करने के बाद दूसरे स्थान की पर्ची तक पहुंचने का संकेत मिलता था। पूरा खेल लगभग डेढ़-दो घंटे में पूरा होता। पल-पल रहस्य, रोमांच, उत्सुकता, खुशी, हार-जीत, आशा-निराशा के भाव आते जाते। दूसरे दल पर भी नजर रखनी पड़ती कि वह किस चरण में हैं। अंतिम पर्ची में खजाने का पता लिखा होता। खजाना मिलने पर उच्च स्वर में भारत माता की जय का जयघोष किया जाता ताकि दूसरा दल और सभी बच्चे समझ जायें कि पहले वाले दल ने विजयश्री प्राप्त कर ली है और वे अपना खोज अभियान बंद कर स्कूल ध्वज के पास एकत्र हो जायें। हारने वाला दल थोड़ी देर के लिए निराश जरूर होता पर अगले ही पल किसी दूसरे खेल या गतिविधि में लग उत्साह से भर जाते। ऐसे ही कबड्डी, खो-खो, शेंर-बकरी, विष-अमृत, आम-नींबू-संतरा, नेता खोज और वालीबाल खेल खूब तालियां बटोरते। दोपहर का भोजन सभी साथ करते। शैक्षिक भ्रमण के दिन भोर होते ही हम नहा धोकर विद्यालय की यूनिफॉर्म पहन भोजन का टिफिन ले स्कूल की ओर निकल भागते। पूरे परिसर में एक अनकहा उल्लास छाया रहता। विद्यालय के रिक्शे में चूने की बोरी, बाल्टियां, दरियां, नाश्ते के लिए खरीदे गई भोजन सामग्री से भरे गत्ते रखे जाते। एक रिक्शे पर किराए पर लिया हुआ लाउडस्पीकर बांधा जाता और दो पंक्तियों में बच्चों को खड़ा कर सामने बैनर पकड़कर गीत गाते हुए और कुछ नारे बोलते हुए हम बच्चे उत्साह के साथ अपनी यात्रा शुरू करते। बाबा की कुटी बहुत रमणीक स्थान था, जहां बहुत सारे विभिन्न प्रजातियों के फलदार एवं शोभाकारी पेड़, फूलों की क्यारियां एवं तमाम तरह की चिड़ियों का बसेरा था। बगल से बरसाती नाला में निर्मल जल कल-कल करता संगीत सुनाता बहता रहता। पेड़ों में तमाम पक्षी कलरव करते चहचहाते उड़ते-बैठते रहते। यह हम सब बच्चों के लिए पहली बार हो रहा होता क्योंकि नगर में यह पक्षी दिखाई नहीं देते थे और जब हम पेड़ में बैठा हुआ कोई नया पक्षी देखते तो खुशी से चिल्ला उठते, ‘‘देखो! यह नीलकंठ है, यह मैना है। यह तो सफेद चील है या यह कठफोड़वा है, जैसा कि हमारे शिक्षकों ने पहले पढ़ाया-बताया होता था।’’ ऐसा लगता कि जैसे वहां उपस्थित सभी बच्चों में उस बच्चे ने यह कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। झााड़ियों में खरगोश और नेवले भी दिखायी दे जाते। सफेद खरगोश मैंने पहली बार वहीं देखा, अन्यथा भूरे रंग के खरहा को ही खरगोश समझता रहा था। पास के मैदान में गायें भी घास चरती रंभाती रहतीं। हर बार कुछ शरारती बच्चे महुआ के पत्तों का दोना बनाकर गाय के थनों से दूध भी निकाल लाते। कुछ बच्चे शिक्षकों की नजरें बचाकर पेड़ों पर चढ़ जाते तो कुछ साहसी बच्चे नाले में उतर नहा भी लेते। बहुत बाद में समझ में आया कि कोई भी गतिविधि शिक्षकों की दृष्टि से ओझल न थी। सुबह कुटिया पहुंचने पर मैदान में ही पेड़ों के नीचे दरियां बिछाकर सभी बच्चों के झोले रख दिए जाते। वहीं पर हम सबको नाश्ते में चना-लाई मिलता। कुएं का ठंडा पानी पीकर तन-मन में ऊर्जा का संचार हो जाता।
शैक्षिक भ्रमण केवल घूमना और मनोरंजन भर नहीं थे बल्कि प्रकृति के विशाल पृष्ठों पर ज्ञान निर्माण के हमारे अनुभवों का अंकन ही थे। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है एक संवेदनशील, प्रकृति मित्र, मानवीय चेतना एवं समता-ममता युक्त मेरे व्यक्तित्व के बेहतर निर्माण में उन शैक्षिक भ्रमण आयोजनों का व्यापक प्रभाव रहा है। देखा जाये तो शैक्षिक भ्रमण मानवीय मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बच्चे नेतृत्व, लोकतांत्रिकता, साहस, सामूहिकता, परस्पर सहयोग एवं विश्वास, प्रेम, सद्भाव, सहिष्णुता, निर्भयता के भाव भ्रमण के दौरान सीखते हैं। शैक्षिक भ्रमण बच्चों के अंदर कार्य योजना, समीक्षा, कल्पना, क्रियान्वयन एवं प्रबंधन के गुण भी विकसित करता है। एक दूसरे की मदद करते हुए लक्ष्य तक पहुंचना और सुख-दुख को समान रूप से साझा करना भी सीखते हैं। एक शिक्षक के रूप में मैं शैक्षिक भ्रमण को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम मानता हूं। क्योंकि यह विषवस्तु को रटाने की पद्धति से मुक्त कर प्रत्यक्ष सीखने को बढ़ावा देता है। शैक्षिक भ्रमण हमें बेहतर मनुष्य होने का भाव भरता है।
— प्रमोद दीक्षित मलय