कविता

टुट गई आस

नहीं भरोसे का यह जग सारा
बेईमानों से मन गया हारा
किस पे कैसे अब करूँ विश्वास
टुट बिखर गई भरोसे की आस

बाहर से दिखता है जग कुछ और
अन्दर में बैठा मन का वो चोर
भरोसे के लायक कहाँ रहा जमाना
मुँह पे है राम बगल में देत ताना

कैसे कैसे तन का मन है पाया
उपर वाले ने था इन्सान बनाया
जग में आकर अब हुंए बेईमान
भूल बैठा मानवता की सम्मान

कोई कोई किसी का नहीं ये जमाना
अपनापन जग में नहीं पाया ठिकाना
क्या क्यां सपने देखा था मेरे भाई
हमने वो सब जग में है आज लुटाई

जग वाले ने किया है हमारे संग मनमानी
चेहरा था वो भई जानी पहचानी
कैसे कैसे जग दिखलाया था सपना
बन ना सका जग में कोई भी अपना

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088