कविता

डर कितना है

खोजो खोजो सब कोई बंधु
अपने अंदर डर कितना है,
जिंदा रहकर डरे हो कितना
डरकर गए हो मर कितना है,
डर अंदर की कमजोरी है,
अनदेखे को श्रेय देना क्यों मजबूरी है,
किसने तुम्हें कब कब बचाया है,
किसने भीरू बना जब तब डराया है,
डरना ही है तो प्रकृति से डरो,
उनसे छेड़छाड़ खिलवाड़ मत करो,
डर का अंजाम भयानक होता है,
मत सोचो ये अचानक होता है,
आपके भीतर खौफ धीरे धीरे भरा जाता है,
डराने कोई और नहीं आता है,
बचपन में घर परिवार द्वारा,
फिर सामाजिक संसार द्वारा,
कहीं धन के घमंडियों द्वारा,
कहीं धर्म के पाखंडियों द्वारा,
ये डर लूट जाने पर मजबूर करता है,
अनाम चमत्कारियों से गुहार कर,
मन मस्तिष्क गुलामी की ओर जाता है,
फिर कुछ धूर्त अपने इशारे पर नचाता है,
डर से हमें दूर
हमारी एकाग्रता और ध्यान कर सकता है,
सोच व ज्ञान विज्ञान कर सकता है,
तार्किकता हर हथियार से बड़ा है,
दुनिया वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ा है,
यदि अपने अंदर डर नहीं दिख रहा
तो फर्क नहीं पड़ता उमर कितना है,
फिर कोई नहीं पूछेगा डर कितना है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554