निभाये हैं रस्म मैंने
घर में,
गांव में,
समाज में,
विद्यालय में,
औषधालय में,
और न जाने कहां कहां,
निभाये हैं रस्म मैंने,
जलील होने का,
खान पान पश्चात
अपना ही जूठा धोने का,
नहीं छू सकता किसी को,
क्योंकि जिसे कहा जाता है सर्वशक्तिमान
वो भी अपवित्र हो जाता है,
अपनी सामाजिक बेबसी पर घमंड करूं
या अपवित्र करने की ताकत पर,
या फिर दूर से घूरती नजरों की हिराकत पर,
कब बन पाऊंगा इंसान,
उन तथाकथित सभ्य इंसानों की नजरों में,
जो अपनी जाति के कारण
भूल जाता है इंसानियत का तकाजा,
हां निभाये हैं रस्म मैंने,
बेवजह मार खाने का,
लिंचिंग में खो जाने का,
इंसानी भेड़ियों द्वारा शिकार होती
बेबस,मासूमों की चीत्कार सुनने का,
पता नहीं कब आ पाये मुझमें
प्रतिकार,प्रतिशोध और
उसी की भाषा में जवाब देने का गुर,
इंतजार है इसी रस्म अदायगी के समय का।
— राजेन्द्र लाहिरी