मेरी गौरव गाथा
मैं ही हूं , छोटी इ, और मैं ही बड़ी, ई की प्रदाता
सदियों से, चली आ, रही है मेरी अलौकिक, गौरव गाथा।।
देव भाषा, संस्कृत के उदर से, जन्मी, हूं मैं
मां गंगा के, आंचल तले पली व , बढ़ी हूं मैं ।
तमाम उतार-चढ़ाव, की हूं साक्षी देवत्व है, मुझमें समाता ।
सदियों से, चली आ, रही है मेरी अलौकिक, गौरव गाथा।।
हर तरह के, हाव -भाव मैं सुगमता से, व्यक्त कर, पाती हूं
बन कर, भारत की, राजभाषा अपने भाग्य पर, इतराती हूं।
है अत्यंत विशाल, शब्दकोश मेरा जल्दी न कोई, इसका, पार पाता
सदियों से, चली आ, रही है मेरी अलौकिक, गौरव गाथा।।
लेखक, कवियों , साहित्यकारों ने मुझे नये-नये, शब्द प्रदान किये
सूर, कबीर, तुलसी जैसों ने मुझे भिन्न-भिन्न ,आयाम दिये ।
विभिन्न बोलियों की, हूं जन्मदात्री रक्षक स्वयं है, मेरा विधाता
सदियों से, चली आ, रही है मेरी अलौकिक, गौरव गाथा।।
विश्व की, तीसरी, सबसे बड़ी भाषा, हूं मैं, बोली जाने, वाली
लिखने, पढ़ने में, मैं हूं, आसान क्षेत्रीय,भाषाएं हैं, मेरी हम प्याली
नही किसी, से भी, अनबन हमारी लचीलापन, मुझको, अति भाता
सदियों से, चली आ, रही है मेरी अलौकिक, गौरव गाथा।।
— नवल अग्रवाल