कविता
अपना सामां बांध बटोही सांझ हुई चल घर चलते हैं।
कल आया तो कल देखेंगे सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
छोड़ दे अब तू गणित लगाना ,झूठ मूठ का मन बहलाना।
जो दिखता है सब नश्वर है, नश्वर है सब खोना – पाना ।।
ये राग द्वेष खुद मिट जाएंगे, भीतर जो भी पलते हैं ।
कल आया तो कल देखेंगे सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
कलियां पुष्प जो टहक रहे थे, खुशबू से जो महक रहे थे।
भंवरों के संग चहक रहे थे , जो मस्ती में बहक रहे थे ।।
ये भी सांझ के होते-होते, अपना रंग बदलते हैं।
कल आया तो कल देखेंगे सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
इस नगरी में दिल क्या लगाना, चलता रहेगा आना जाना।
जगत सराय रेन बसेरा , सुबह मुसाफिर होगा जाना ।।
बिछड़ गए तो पुनः मुसाफिर ,इस नगरी कब मिलते हैं।
कल आया तो कल देखेंगे सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
आर्त बनकर जग के आगे , कभी नहीं तुम हाथ पसारो ।
खुद को दीन बनाकर बंधु , कुछ पाने को जगत निहारो ।।
स्वर वेदना के सुनकर भी, पत्थर नहीं पिघलते हैं ।
कल आया तो कल देखेंगे , सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
सुबह से लेकर शाम तलक, यह जीवन सुख दुख ढोता है।
मौसम मौसम के संग चलता, कभी हंसता कभी रोता है ।।
रुत – रुत की है बात प्यारे , धूप के देखे पर जलते हैं।
कल आया तो कल देखेंगे , सांझ हुई चल घर चलते हैं।।
— अशोक दर्द