ग़ज़ल
समयांतर ने निचोड़ लिए हैं सूहे रंग बहारों के।
क्या करने हैं पतझड़ जैसे चेहरे अब गुलज़ारों के।
दुश्मन ने दुश्मन से छीन के दुश्मन के ऊपर चलाईं,
रंग बदल गए ढंग बदल गए संग बदले तलवारों के।
घर की हर इक मर्यादा को नज़र अंदाज़ किया है,
निज कमाई कर के ही घमंड बड़े हैं नारों के।
जबसे आंधी ने बस्ती में राज स्थापित किया है,
पहले जैसे मखमल जैसे रूप नहीं कचनारों के।
पापी पाप कमा कर बेशक छुप जाए तयखाने में,
परन्तु कहते बीच हकीकत कान होते दीवारों के।
तूफानों के भीतर भी हम पर्वत भांति अडिग रहे,
दुश्मन साथ बनाई हमने साथ रहे दिलदारों के
उसके जूड़े बीच परांदा एैसे खूब सुसज्जित है,
सूहे रंग के दाने दहकें जैसे बीच अनारों के।
फूलों ऊपर तितली बैठी जन्नत को दृष्टाती है,
रिश्ते अच्छे लगते हैं रिश्ते हो अगर विचारों के।
तीक्ष्णता की एक बुराई सुन्दरता में कौन है देखे,
खुशबूओं ने फूलों भीतर भेद छुपा ले खारों के।
नव फूलों की आमद की फिर कीमत देखी जाती है,
मण्डी में दाम कोई ना देवे खण्डित हथियारों के।
फूलों की खुशबू को बालम कौन लगाएगा ताला,
जितने मर्ज़ी पर्दे डालो भेद छुपा लो यारों के।
— बलविन्दर बालम